Sunday, March 28, 2010

ठाकुर के खेत से
सेठ की तिजोरी तक
मेरा ही लहू बहता है
वही सबसे सस्ता है
सूरज की गर्मी से
नहीं झुलसता मेरा शरीर
उसे झुलसाता हैं
यंत्रणाओं का सूरज
सावधान मेरे शब्दो
तुम्हारे चारों ओर गिद्धों का घेरा है
जो तुम्हें नोंचने को आतुर हैं
सदियों से वे हमसे
गाली की भाषा में बोलते आ रहे हैं
यह उनकी संस्कृति है
प्रेम की कविता का
बेतुका बंद
मनुष्यता की कमीज पर
जाति का पैबन्द
टूटे जड़ता, सन्नाटा और
हलचल हो उनमें भी
जो रहते आए हैं चुप
मेरे दोस्त
मेरे लिए उस भाषा में
मंगल कामना मत करो
जो भाषा
कभी मेरी नहीं रही
जिसके लिए रहा मैं सदैव
अंत्यज, अस्पृश्य

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