अन्तरात्मा का गणतत्र...........
अपनी अन्तरात्मा की
ठण्डक और
अनम्य इन्कार के बग़ैर
असम्भव है
वैभव और गरमाहट गणतत्र की
जिन हाथो से निकलता है
कुहरा दुर्घटनाओं का
लघु और दीर्घ-शंकाओं के
भीतर तक
उन्ही तूफानी हाथो में
डौर है प्रजातंत्र की
सोते हुए सभी चेहरे
लगते हैं निश्छल
जकड़ लेते जबड़े
हर सांस को
और जगते हुए चेहरों से
भयभीत है आत्मा प्रजातंत्र की
गुण-दुर्गुण लोगों के
हाथो से तपती है धरती
अमानवीय जीवन से
जन्मजात गुण-अवगुण के
इस भयातुर दौर में
कैसे बधाई दे गणतंत्र की
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