Sunday, March 28, 2010

देख तमाशा भाग गया वो ...........

क़तरे को इक दरिया समझा, दरिया कों समझा महासागर
ख़ुद को इतना सस्ता समझा, सस्ते कों समझा घन गागर
तन पर तो उजले कपड़े थे, अन्दर चमडी पर मेल लोटता
उन लोगों को अच्छा समझा, जिन लोगो के दिल में खोट था
मेरा फ़न तो बाज़ारों में, उस नागराज के साथ खडा था
जिन सांपो ने डसा रोज ही ,उन सांपराज से रोज लड़ा था
बीच दिलों के वो दूरी थी,जब मैं और वो पास खड़े थे
आँखों को इक रस्ता समझा,आपस में जब खूब लड़े थे
खुद को खुद की खुद्दारी में देख तमाशा भाग गया वो
ख़्वाबों को इक बच्चा समझा, सोते से फिर जाग गया वो
गैर समझते थे हम जिसको ,और रिश्ते तोडे मौड़ माड कर
खातिर मेरी तन्हाई की , वो साथ चला सब छोड़ छाड़ कर .... ......
.....मुकन्दा

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