Sunday, March 28, 2010

ज्योत्स्ना तुम प्राण बिंदु हो


ज्योत्स्ना तुम प्राण बिंदु हो
क्षितिज धरा का प्राण सिन्धु हो
अंक नभ में ज्योत तुम्हारी
मृदु वर्त्तिका सी ऑस तुम्हारी
तरणी का प्रलय सिन्धु हो
ज्योत्स्ना तुम प्राण बिंदु हो

कोमल व्यथा सजल सी आँखे
जिनमे बन आलोकिक लौ है झांके
धुल अचंचल से तुम गाथा
स्निग्ध लौ की तुम अभिराथा
उज्ज्वल तूलिका की चित्रबिंदु हो
ज्योत्स्ना तुम प्राण बिंदु हो

पाथेय बन एक रोज मुकन्दा
आहटहीन चंचल सपनों सा
तड़ित् भ्रम को रोज गिनेगा
नभ में खिली सिक्त शशिधर को
लघु विहग सा मन रोयेगा
छाँह उज्ज्वल सी राह बिंदु हो
ज्योत्स्ना तुम प्राण बिंदु हो........
............मुकन्दा

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