Sunday, March 28, 2010

जब रंग गुलाल खिले तन पे , गौरी पे रंग दमकता हो...
चोली अंगिया सब भीग गई ,फिर देख बहारे होली की...

गोरी को रंग गुलाल मले , भाभी के संग ठिठोली हो..
भर भर के जाम छलकते हो, तब देख बहारे होली की..

हाथों में जब पिचकारी हो ,और सामने जब मन प्यारी हो..
रंग खिले सभी तब बढ़ बढ़ के ,फिर देख बहारे होली की..

जब रंग लगावे अड़ अड़ के , कुछ घट घट के, कुछ बढ़ बढ़ के...
नैनो से नैन मटकते हो , तब देख बहारे होली की ......

इस धूम धडाके में तन मन ,मुह लाल गुलाबी होय बदन ...
किचड में सना "मुकन्दा" हो , तब देख बहारे होली की ...




होली का आईना जैसे
गौरी को छूने का सुख है
वज्र-गिरि वक्षस्थल
और इसकी रानों की चमक
मर्दों को खूब पसंद है
इसी बहाने .
ऊर्ध्व दिशा से
रंग गिराकर
पिंडलियाँ ताकते रहते है
सूखी भूरी अपनी आँखों से
तन से चिपके कपड़ो के नीचे
घनघोर जिस्म के झुरमुट की
झिलमिलाहट से आशावान है
उसको मालूम है
धीरे से मुस्कराती है
आँखों ही आँखों में जैसे
कहती है
अभी फल बहुत दूर है

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