Sunday, March 28, 2010

पेड़ और इंसान ......

चक्रवात के एक झंजावत ने
किनारों कों मिटाने का जब नाम लिया
काले समुद्र ने कै की थी
बर्बर समुद्र-तट से.
सुन्दर हरित मैदान के ऊपर
काली लाल आँखों वाला वो पिचाश
घूरने लगा पेडो कों,
इंसानों कों..
पेड़ गिरने लगे थे,
इंसान मरने लगे थे.
पेड़ गिर गए,
इंसान मर गए..
पेड़ों के भव्य तने
तूफ़ान से ध्वस्त हो गए,
इंसानों के हौसले प्रस्त हों गए..
इंसान और पेड़ दोनों निर्जीव हो गए..
पेड़ हे पेड़ ,हे इंसान
क्या तुम मर सकते हो?
सुर्ख़ नदियों ने पूछा.
प्यारे पेड़ और जद्दोजहद भरे इंसान,
तुम्हारी जड़ें लबालब भरी हुई हैं,
युवा अवयवों से तैयार गहरे हौसले से..
प्यारे पेड़ और धरती के दुलारे इंसान,
तुम दोनों की की जड़ें कभी नहीं सूखतीं..
क्यू की तुम दोनों ही साँसों से जीते हों,
तुम्हारी जड़ें फैलती हैं नितल गहराइयों में,
चट्टानों के पार तक धरती के भीतर,
अपना रास्ता ढूंढती हुईं
मुकाम तलाशती हुई
तुम्हारी जड़ें कभी नहीं सूख पायेगी ....

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