Sunday, March 28, 2010

आख़िरी शब्द..आक्रोशित मन...

अपने बारूद भरे अल्फाजो में
बेरुखी की छाँव में
और बेगानेपन के लहजे में
उन्होंने मेरे शब्दों को बन्दी बनाया
और चुप रहने को कहा है

वे धमकाते हैं मेरे शब्दों को
फटकार के कोड़ों से
सहिष्णुता और निश्चित परम्परा के नाम पर
जब मेरे शब्द उनका विरोध करते हैं
इस नारकीय जीवन से मुक्ति पाने के लिए
लाखो करोडो मेरे अपने लोगो का
दुःख सुनाने के लिए
जिनके लिए दुनिया की
हर चीज छोटी है
उनके लिए संसार का सबसे बड़ा सत्य
केवल और केवल रोटी है
हम उनके बीच कैसे रह सकते है
जिनके लिए कविता
अपने वासनामयी प्यार की अभिव्यक्ति है
और भूखे इंसान उनके लिए तुच्छ व्यक्ति है

वे वहाँ से
स्वयं तो चले जाते हैं पर
मेरे शब्दों से कहते हैं--
नरक में ख़ुशी से रहो
हे अक्खड़ पहलवान के
बदमिजाज शब्दों

क्या तुमने मुझे देखा है?
दुर्गति मेरी बरसों से साथी है
मै प्रार्थना करते-करते थक चुका हैं
पर उसे सुनने वाला कोई नहीं है


"तुम कौन हो, मेरे दोस्तों
तुम कौन हो
मुझे ऎसी यातना क्यों दी है?"
"क्या मै नरक में खिले हुआ फूल हूँ "
क्यों मुझसे कहते हो
"मुकन्दा
इन तम्बुओं में तू क्या शब्द गढ़ेगा
एक शाश्वत पथ
उन लाखों लोगो के लिए नहीं
जिन्हें हम मनुष्य नहीं समझते"

मेरे आख़िरी शब्द इतना कहकर
चले जा रहे है
"हे दोस्तों
सुनहरे जीवन का
काफ़िला बन चलेगा
जब मेरे शब्द शांत होगे
ज्वालामुखी के गर्म लावा की तरह
जो सूखने पर ऊर्जा से भरपूर होता है
लहलहाती फसलो के लिए
और अपनी स्नेहमयी ओस से मै
ये नारकीय ज्वालाएँ शान्त कर दूंगा "

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