Sunday, March 28, 2010

मुकंदा गूंगा है..........

पेडो की छाल गिनकर
नदी का पूल बांधने वालो
मेरे अजीज दोस्तों
पहले मैं गूंगा नहीं था
वैसे तो आज मैं गूंगा नहीं हूँ
परंतु कुछ बौखलाए हुए मेढ़कों ने
मेरे कान में रुई ठूंस दी है
और मुझे गूंगा बना दिया
वैसे मैं उनकी वजह से नहीं
आपकी खातिर गूंगा बना हुआ हूँ
क्यू की आप सत्य कों झूठ
और झूठ कों खरबूजा जो बोलते रहते हों
वरना किसमें थी इतनी शक्ति और विवेक?
जो मेरे गले की आवाज़ छिनता
मुकन्दा आवारा सांडो से कभी नहीं डरा
मुझे आप लोगो से डर लगता है
क्यू की आपका विवेक मुझसे बड़ा है
तुम रो नहीं पाते उसके लिए
जिन्हें इन सांडो ने
गले के स्याह जख़्म दिए है
हे दोस्तों सम्मानोचित है तुम्हारी प्रशंसा, तुम्हारा प्रेम,
सरल, सहज है तुम्हारी हर रचना
पर तोड़ चुकी है दम मेरे शब्दों की बुलबुल
अब शब्दकोश ही एकमात्र उद्यान है
बर्फ़, पहाड़ और झाड़ियाँ
चाहता है कि मैं गाता रहूँ, उन्हें
कोशिश करता हूँ कुछ बोलने की
पर होँठों को घेर लेता है गूंगापन
गूंगे मन का हर क्षण
होता है अधिक प्रेरणाप्रद
उन्हें चाहते हैं सहेज कर रखना
जब तक सम्भव हों मेरे शब्द
बस, कैसे भी राहत मिले
तनी हुई मेरी इन नसों को
सब कुछ रट डालूँगा मैं
जिसे गाने का आग्रह किया जायेगा मुझसे


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