Sunday, March 28, 2010

एक गन्ध

जून के महीने सी भटकती हवा
रोज मेरे ह्रदय को जलाती है
जो आंच चूल्हे में होनी थी
वो ही आंच
चूल्हे की बुझती राख को कुरेदती है
उधार की अधपकी रोटी
उस आंच को ढून्दती है
एक ग्रास तोड़ती है
और घुटनों पे हाथ रखके
राख में आंच को मौड़ती है

पंजाब के पीले गेहू और
बिहार के ज़र्द होंटों के छाले
आज बिलखकर
आंच को आवाज़ देते हैं
आंच हर गले स्याह दर्द देती हुई
चीख मारकर
बंगाल की खाड़ी में गिरती है ...

कब्रिस्तान से
एक गन्ध-सी आती
और श्मशान पार बैठे
श्मशान-घरों के वारिस
आंच की इस गन्ध को
साँस की गन्ध में भिगो कर पीते है ...

चूल्हे की आंच धीरे धीरे
ह्रदय में उतरने लगती है
और चूल्हे के दूसरे वारिस
भूख के धुवे में
तक़दीर की गन्ध ढून्दते है
और आंच का वो धुँआ
मंदिर के आहाते जाकर
विलीन हो जाता है
मंदिर की छोटी दिवार
और मोटी हो जाती है
पुजारी का पेट उस गंध से
तृप्त होकर
गंध और आंच में अंतर ढून्डने लगता है .....

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