Sunday, March 28, 2010

कोवो की पंचायत ......

गाव के कई
पगलाए हुए
आवारा कोवे
गाव के बाहर
खँडहर हुए
मंदिर के अहाते में
बैठकर
लगे जानवरों कों
कोसने
ये आजकल के जानवर
ना जाने क्या खाते है
इंसानों की तरह
लम्बी उम्र पाते है
मरते ही नहीं
अगर ये मरे
तो हम भी
इनके माँस कों चखे
और ये मुकन्दा
अपने आप कों
ना जाने क्या समझता है
हमेशा जानवरों का ही पक्ष लेता है
काश ये मुकन्दा भी मर जाए
और इसके सारे जानवर
भूखे मर जाए
तो हम रोज़
इसके ढोरो का
ढेर सारा मांस खाए
गनपतिया का
गंजा बेटा ललुवा
उधर से गुजर रहा था
कोवो की पंचायत देखकर
भागा भागा
माँ के पास आया
और कोवो की पंचायत का
सारा हाल कह सुनाया
माँ ने उसके गंजे सर पर
हाथ फिराया
और समझाया
मेरे लाल
ऐसा नहीं सोचा करते
कोवो के सोचने से
ढौर नहीं मरा करते
मुकन्दा की तो
बात ही अलग है
वो बेचारा कितना मजबूर है
कि हर जीव
चाहे ढौर हों या कोवे
सब कों एक सा
प्यार करता है
इन नामुराद कोवे की
आँखों में तो
ज्योति के बच्चे
मर गए हैं
ये काने कोवे
खोई हुई आवाज़ों में
एक दूसरे की
सेहत पूछते पूछते
बेहद डर गए हैं
इसलिए तू मुकन्दा और
उसके जानवरों की
चिंता मत कर
उसके ढोरों की तरह
मस्त होकर घूम .......


ढौर= जानवर

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