Sunday, March 28, 2010

जिस संसार में मुकन्दा बसता है ....

जिस संसार में मुकन्दा बसता है
उस संसार की छत अलग है
उस संसार के बादल और हैं
उस संसार का सावन ज्येष्ठ जैसा है
आकाश अजनबी धरती बेगानी
उस दुनिया की अलग कहानी
मेरे सब ख़्त नाम तुम्हारे
पहली डाक में मुझे भिजवा दो
मेरी सब साँझें लौटा दो

कहीं गुम गया वो सूरज भी
सब्ज़ पहाड़ों पर चढ़ता था
चम-छम नदियों में नहाता था
खुले मैदानों में घूमता था
अखाडों में बदन रगड़ता था
पहलवानी में झूमता था
गहरे सरोवर में तैरता था
नीले अम्बर पक्षियों की कतारें
धूप में छम-छम पड़ती बरखा
क़ुदरत के उस बही ख़ाते पर
अपने पिछले दिन गिनवा दो
मेरी सब साँझें लौटा दो

मालूम है मैं नहीं हूँ मजनू
न मैं महीवाल ना ही रांझा
तू भी हीर
या सोहनी नहीं
फिर उलाहना गुस्सा कैसा
घूंघरू वाली भैंस के पीछे
तू मेले में आई न मिलने
न ही तेरी मोटर के पीछे
मैंने मुड़कर देखा
तेरी कुरती के बटनों पर
बोझ किसी दूसरी छाती का
अब मेरी कनपटियों पर भी
तेल लगाती हैं और उंगलियाँ
गुज़रे जीवन का वो टुकड़ा
समय के पटवारी को कह कर
सब लिखवा दे मेरे नाम
मेरी सब साँझें लौटा दो
मेरी सब शामें लौटा दो....

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