Sunday, March 28, 2010

आती अभिलाषा कभी कभी


घर के उस कच्चे आँगन में
देखा था एक सपना कभी
दूर गगन की नील छाव में
मन का था मधुहास कभी
आशाओं के पंख छू छू कर
उड़ जाता था कभी कभी
नहीं प्यार नहीं मधुर मधु था
पर था उनमे आभास कभी

दिन भर खेत खलियान भागते
गौधुली में घर आते
निर्मल छाव थी बसंत की
उर मन से जब भी गाते
जिनके अर्थ से जागे आशा
देख उदासी भी थम जाए
भाग समय की उस धारा पर
गीत स्वर भी रच बस जाए

नैन सजल हो जाते सुनकर
व्यथा पीडा जब आती
मै माँ को यह समझाता तब
मन घौर निराशा क्यों लाती
कर मुझ पर विश्वास री जन्मी
मै क्या सोच रहा ,तुम क्या जानो
आने दे विश्वास के बादल
सब व्यथा पीडा पी लूंगा

ना जाने कब संगी साथी
हँसकर के लौटा दो बचपन
स्मरती की राह ढूंड़ता
मन का यह कोमल आलिंगन
वंचित सा अब भाग रहा हूँ
जिसको समझा प्यार कभी
आशा है फिर मिल जाएगा
मेरा निर्मित संसार कभी
एकाकीपन एकांत है निष्प्रभ,
अंधकार में खोये कभी कभी
थकता मन थकती साँसे अब
शब्द ना जाने क्यों गाऊ
आशा के इस भरे गगन पर
हास-विलास को समझाऊ

जिस आकाश से सूरज निकले
रात भी है उसके अन्दर
उन रातो को मधु के सपने
खो जाते तारो के अन्दर
जिसको जग अन्धकार है कहता
जीवन का सब सत्य यही है
प्रकाश पुंज का घेरा छोटा
है अन्धकार मेरे मन में

मेरे मन के इस निर्जन वन को
रोज जलाती ज्वाला भय
मेरी इन सूनी राहो को
रोज सजाती जीवन शय
निज जी लूंगा क्या पाउँगा
एकाकी बन मै क्या पाउँगा
दूर छिटक कर खो जाउंगा
धुंध में सहना कभी कभी
जो कल खोया आज भी पाया
सुख-दुख अपने किसको दू मै
बेचैनी में तडप जो उभरी
उस तडफन को किसको दू मै
शब्दों में विक्षिप्त अंगारे
मन में भयातुर सी ज्वाला है
एक साँस का खेल मुकन्दा
आकुल सा अशांत मुकन्दा

अपने दुःख को बढ़कर समझू
दूजे के दुःख को तिल तिनका
रोज चिता में जल जाता है
मै क्या जानू ह्रदय उनका
सबको छोड़ चली जब व्यथा
सबकी पीडा मन में हर लू
आती अभिलाषा कभी कभी

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