Sunday, March 28, 2010

ये गीत मेरे ये नज्म मेरी

ये गीत मेरे ये नज्म मेरी
संगीन तो है रंगीन नहीं
मै जीता हूँ इल्जामों में
तेरे गीतों पर इल्जाम नहीं

एक रात की बिखरी रात ye है
कुछ और बियाबां होने दे
चन्दा को निकल आने दे ज़रा
फिर रात निखर जाने दे ज़रा
एक एक कर के मै हर्फ़ लिखू
पल भर का भी आराम नहीं

मै अहवाल-ए-बशर को लिखता हूँ
जज्बे-एदिल भड़काता हूँ
तू हुशन लिखे और जिगर लिखे
मै जिगर के अन्दर जीता हूँ
ये बात हमारी दोनों की
इस तरह से यु अहराम नहीं

शब्दों के तीर से घबरा कर
सुनसान से तुम हो जाते हो
जिन पन्नो को तुम लिखते हो
न उम्मीद न जोश ही लाते हो
जो लिखते लाखो लोग यहाँ
मुझ पर वो इल्जाम नहीं

ये गीत मेरे ये नज्म मेरी
संगीन तो है रंगीन नहीं
मै जीता हूँ इल्जामों में
तेरे गीतों पर इल्जाम नहीं

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