Sunday, March 28, 2010

जलते हुए सूरज से एक चिंगारी उधार लो


जलते हुए सूरज से एक चिंगारी उधार लो
और रख दो अपने आंगन में
और सहज कर रखो अपने दिल में
इसकी गर्मी की आंच के मरकज़ को,
इसी आग से लो आप
तमाम पाए गए शब्दों और अर्थों का ईंधन
और महसूस करो सुबह के सहज प्रकाश में इसके आनंद को
तपाओ देर तक कुम्हार के आवे की तरह
अपने शब्दों को इसमे
फिर देखो कैसे आकाश की ठंडी हवा में भी
कैसी फुसफुसाहट और जीवटता भर देंगे
आपके शब्द ,
और इस चिंगारी को खूबसूरत महत्वाकांक्षा की आग में
तपाना है आपको
लपेट बना देना है इसको
इस आग से कुछ आँच मिलेगी
आलोक का विश्वास जगेगा
हो जाएगी परख साथ ही
आपके कुछ शब्दों और अर्थों की
और उनके संग किए
चेतन-अचेतन कर्मों की
झूठे शब्द-अर्थ जल जाएंगे
साँच की लौ और चमकेगी
बसंत की शाखों से लिपट लिपट के
क्यों कि शब्द पैदा होते है ,
बातें करते और मर जाते हैं
अर्थों से अर्थों तक
एक प्रवाह चलता है
आज की अग्नि-परीक्षा में से
जो भी अर्थ जीवित निकलेगा
उसकी महिमा
आपके अपने जन्म लेने वाले शब्द कहेंगे
अंतहीन और गाते हुए,
सूरज से जन्मी ये आग
सूरज जैसी ही बन जायेगी
मुक्ति दिलायेगी आपको शोर से और धुंध से
और उस चंचल हवा से
जो बार बार आपके शब्दों पर हावी होती है
ये जीवंत आग जीवत बनाकर
अपने मान के हस्ताक्षर छोड़ जायेगी ...
...मुकन्दा

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