Sunday, March 28, 2010

मेरे शब्द............

इंसान धीरे धीरे जवान होता है
कभी लम्बी डग कभी छलांगे भरता है
और चलता रहता है ख़त्म हो जाने तक
लगातार चलते रहना उसके भाग्य में है
जब तक कि उसका नामोनिशान मिट न जाए
मेरे कदम शब्दों पर चलते है धरती पर नहीं
शब्द भी वे जो स्याही से नहीं खून से उगलते है
कागज़ पर पड़े स्याही के दाग फ़ीके पड़ जाते है
पर मेरे खून से पड़े धरती पर दाग हमेशा चमकते है
यह मुकन्दा ही है जो न जमता है न थमता है
न ही प्रतीक है
चेतना के आंतरिक घुमाव से निकली
उस ज्ञान की रोशनी का ना ही रोशनी के मिथकों का
मेरे शब्द बिना बरखो के लिखे जाते है
मेरे शब्द बिना देखे पढ़े जाते है
मेरे शब्द अटे पड़े हैं आहटों के जंगल में
रोशनी के क्षणांश में
उस घास में उन वृक्षों में
जो ना अभी उगे ना जमे है .....
......मुकन्दा

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