Sunday, March 28, 2010

रोते हुए शब्द

मैंने देखा
लोग लिखने में मग्न है
क्यों लिख रहे
और क्या लिख रहे है
खुद उनको नहीं पता
वे तो साहित्य लिखते है
भाषा के लिए लिखते
और भाषा जैसे दिखते है
जहां भारी भरकम शब्द
भाषा की रीड की हड्डी पर
इसी तरह चढ़े बैठे है
जैसे मजदूर की पीठ पर बौरा
कोई प्यार में लिखता है
कोई प्यार के लिए लिखता है
कोई लिखता है प्यार कविता में ही है
इंसानों से नहीं
कोई लिखता है की लिखना
बुद्धीजीवीयों का काम है
इन्ही का महत्त्व है ,
ये ही मत है
बाकी कमबख्त है
इनमे से जो चंद है
समृद्ध है
सामंतो की पकड़ से परे है
दंगा हो , दबंग की दबंगी हो
या समसामंतो का न्याय
हर दीवार में सेंध सुराख
खोजता ही रहता है
मगर मुकन्दा के गीत
ना उसके है
ना उसके प्यार के
ना उसके किसी यार के
ये गीत है मेहनतकश इंसानों के
मजदूरों के किसानो के
रोती हुई आँखों के
गूंगे और बुजुबानो के
आपके शब्दों में
रस है अलंकार है छंद है
मेरे शब्दों में किसी की
आँख का अटका आंसू और
गरीबी का गंद है
उन्हें उनकी कविता मुबारक
मुकन्दा का कविता से क्या वास्ता
मुकन्दा की तो मंजिल ही अलग है
और अलग है उसका रास्ता .....

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