Sunday, March 28, 2010

शहर का अर्थ ...........

लो मै लौट आया
फिर उसी शहर में
जहां शहर का अर्थ
केवल कंक्रीट से बने जंगल और
चोडी चोडी सड़के ही होती है
गौरेयाँ का घोसला
और जामुन की हरियाली
कहाँ है मिमियाते हुए मेमने
और बगीचों वाली शामें ?
रोटियों की सुगंध
और उनके लिए उठती आग की लपटे कहाँ हैं?
कहाँ गईं वे पगडंडी
और आम की बिख़री हुई डाली ?
कहाँ ग़ुम हो गए सारे के सारे मोर बटेर
और सफ़ेद खुरों वाले हिनहिनाते हुए गधे
जिनकी केवल दाईं टांग खुली छोड़ी गई थी?
कहाँ गईं वे बारातें
और उनकी लजीज़ दावतें ?
वे रस्मो-रिवाज़ और पत्तल वाले भोज कहाँ चले गए?
गेहूँ की बालियों से भरे लहरदार खेत कहाँ गए
और कहाँ चली गईं कुम्हारों की गोल गोल सुराहीयाँ ?
हम खेलते थे जहाँ
लुका-छिपी का खेल देर-देर तक
वो खेत कहाँ चले गए ?
वो सुगंध से मदमस्त झाड़ियाँ कहाँ चली गईं ?
दिल दिमांग पर सीधे उतर आने वाली
पतंगे कहाँ गई
जिन्हें देखते ही
बुढ़िया के मुँह से निकलने लगती थीं गालियों की झड़ी
"हमारी खिड़कियाँ तौड़ने वालो
सब के सब तुम, छिनाल के हो-
मुझे मालूम है तुम कभी नहीं सुधरोगे
फूटो यहाँ से हरामजादो
मेरे बगीयाँ से चुराए हुए फूल
तुम कभी नहीं सूंघ पाओगे "

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