इंसानी समाज
पर्दों के भीतर रहता है
उसकी रुपहली रोशनी
पर्दों के बहार है
धुएँ और कालिख को
छिपाए रखता है पर्दों में
कभी कभी इंसान पर्दों के भीतर
मारकर भी जी उठता है
पूजा के घण्टे और मंदिर के अहाते में
गहरी साँस छोड़कर
बार बार छाती में ,
सामने बैठे
भगवन की और देखकर ,
जिन्दगी के सुख
ढूंड़ता है
संसार का ये प्रहरीवृन्द इंसान
बड़ा मजाकिया है
मंदिर बनाकर मूरत में
सूरत देखता है
और मस्जिद बनाकर
सूरत और मूरत
दोनों को मिटा देता है
दोनों जगह इंसान ही है
पर्दों के भीतर रहता है
उसकी रुपहली रोशनी
पर्दों के बहार है
धुएँ और कालिख को
छिपाए रखता है पर्दों में
कभी कभी इंसान पर्दों के भीतर
मारकर भी जी उठता है
पूजा के घण्टे और मंदिर के अहाते में
गहरी साँस छोड़कर
बार बार छाती में ,
सामने बैठे
भगवन की और देखकर ,
जिन्दगी के सुख
ढूंड़ता है
संसार का ये प्रहरीवृन्द इंसान
बड़ा मजाकिया है
मंदिर बनाकर मूरत में
सूरत देखता है
और मस्जिद बनाकर
सूरत और मूरत
दोनों को मिटा देता है
दोनों जगह इंसान ही है