Friday, April 9, 2010

प्रहरीवृन्द इंसान.....


इंसानी समाज
पर्दों के भीतर रहता है
उसकी रुपहली रोशनी
पर्दों के बहार है
धुएँ और कालिख को
छिपाए रखता है पर्दों में
कभी कभी इंसान पर्दों के भीतर
मारकर भी जी उठता है
पूजा के घण्टे और मंदिर के अहाते में
गहरी साँस छोड़कर
बार बार छाती में ,
सामने बैठे
भगवन की और देखकर ,
जिन्दगी के सुख
ढूंड़ता है
संसार का ये प्रहरीवृन्द इंसान
बड़ा मजाकिया है
मंदिर बनाकर मूरत में
सूरत देखता है
और मस्जिद बनाकर
सूरत और मूरत
दोनों को मिटा देता है
दोनों जगह इंसान ही है

Wednesday, April 7, 2010

हे श्रेष्ठ शेर खा

हे मेरी प्यारी माँ ...


एक किसान के घर जन्मी
एक महनत कश किसान की बेटी
सुबह की ताजी -सी शीतल
गम्भीर लहलहाती फसलो सी शांत
सहिष्णुता की देवी ,
धरती माँ की तरह विशाल
हे मेरी जन्मदायनि माँ
अपने आँचल में दुनिया को समेट लेने की
चाह रखने वाली
हे मेरी प्यारी माँ
सिर पर लिपटी ओढनी
फेंटा कमर में,नंगे पैर
लांघ खेत खलियानों की कँटीली झडियाँ
पीठ पर गट्ठर का बोझ
जाती है धीरे-धीरे चलते हुए
खेतो की पीठ-दर-पीठ
पार कर जाती है धीरे-धीरे
अनेक टेढे मेढे रास्ते
कुओ की गहराई से खीचकर
भर कर पानी, पका कर खाना
दूर, निर्जन कष्टकर रेतीले खेत पर
मेड़ से मेड़ तक श्रम-ध्वनि पूर्वक खुदाई के बाद
विश्राम से रहित
सभी बच्चो के लिए
धरती को चीर कर अन्न उगाने वाली
तू कभी नहीं थकती हमेशा चलती जाती है
पोंछते हुए पसीना आँचल से
हे मेरी माँ

एक दिन पूछा मैंने--
माँ कहा से आती है ये शक्ति और ज्ञान तुझमे
वो धीरे से मुस्काई
मै जन्म दायनी हूँ
मुझे पता है जीवन कैसे आता है
और कैसे पलता है
उसके लिए मुझे किसे स्कूल कालिज जाने की
जरुरत नहीं
कुदरत ने वो ज्ञान मुझे स्वभाव में दिया है
की एक माँ अपने बच्चो को कैसे पालती है
मेरे लाल मुकन्दा
तू पढ़कर बहुत सिख गया मेरे बच्चे
पर जब फुरसत मिले इस माँ के
हृदय को पढ़ना
संसार का समस्त ज्ञान इसके सामने बौना है
क्यों की ज्ञान और जीवन का सर्जन तो यही से होना है
मै विस्मय से--
माँ के चारे को ताकता रहा
देखा माँ ने मुझे एक बार
फिर हरा दिया
आखिर माँ तो माँ होती है
पिता बीज है तो माँ धरती
बीज को अपने भीतर से
पौधा बनाकर बाहर निकालती है वो
और इससे पहले की समझा पाती
कुछ और या पूछ पाता मै
कुछ और सत्य
चली गई
चली गई पहले की तरह
मुझे निरउत्तर सा छोड़कर
अपनी गुरु-गम्भीर चाल से
बच्चो की बेहतरी के लिए
उन खेतो खलियानों की और
जहां से मिलाती है ऊर्जा
सृजन शक्ति की
चाहे वो जीवन हो या अन्न
मै नहीं भूल पाउँगा तुझे
हे मेरी प्यारी माँ ...

Tuesday, April 6, 2010

हारा हुआ अन्धेरा ...तुम मेरे कौन हो?


पहचाना मुझे

मै मुकन्दा

तुम मेरे दोस्त हो

मै आपका दोस्त

क्या आपका मेरा नाता बस इतना ही है

अर्धचन्द्राकार बिन्दुओ पर

आप मुझे जानते हो

और मै आपको

हर्फो के इन बरखों पर

आपने मुझे क्या लिखा

और मैंने क्या

क्या कभी देखा है आपने मुझको

जैसा मैंने बताया वैसा मान लिया आप ने

मेरे शब्दों की कजरती छाया

क्या आपने अपने उपर पड़ने दी

क्या मुझे मिलकर आप सहज हो पाओगे

बन्दूको वाले शब्दों में

पहाडो की तरह क्या रट पाओगे मुझे

आपने ही बताया मुझे

शब्दों को कैसे बाटा जाता है टुकड़ो में

अतीत के शब्दों को कैसे काटा जाता है

भविष्य की तलवार से

मेरे शब्दों की आहट

आपकी शांत भूमी को महासागर में बदल देती है

मोमबत्तियों की मंद रोशनी में

आपके चमकते शब्द

सपनों की गठरी लेकर लौटने लगते है

विराम पथ पर



आपने देखा हो या नहीं

मगर मैंने देखा

आपके शब्दों में

रोशनी की आहट दिखाई दी मुझे

जिसकी रोशनी में मैंने

ना जाने कितनी ही कविताओं को जन्म दिया

फिर तुमने भी उन्हें दिल से

चुन कर अलग नहीं किया

खुद के साथ मुझको भी चलाते रहे

जर्जर शब्दों को अर्थ देते गए

सच बताना तुम मेरे कौन हो?



मेरे दाई और मानवता के चुने हुए शब्द है

और बाई और

कपट की हँसी के दाँव-पेंच

दिलो का हारा हुआ अन्धेरा

और चुने ख़ून की बूँद की लाशें

नदी की काली गहराई में

डूबने लगती है

तब मेरे आक्रोश की यातना

अपने अपार ममत्व से आगे निकल जाती है

आकाश का निर्धूम नीलापन मेरे शब्दों में

आक्रोश भरने लगता है

आगे सब तो तुम जानते ही हो

मेरी शाश्वत आक्रोशित दिशायें

सबको मालूम हैं

और मुझमें आप सभी के प्यार का उफ़ान

सचमुच दोस्तों आप मेरे दोस्त हो

और मै हाथीदाँत के पिंजड़े में कसा हुआ

आपका दोस्त
........................ आक्रोशित मन मुकन्दा

Friday, April 2, 2010

नंगे मुर्दों क़ा शहर..

जिन्दगी एक चाहत है
एक सियाह और दर्द-भरी
पथरायी चाहत
उम्र के बोझ से बोझिल
और मेरे शब्द
मुलाक़ात का एक दरवाज़ा है
जहा रात और दिन
पतझड़ से लधे है
जहा पत्ते चुपचाप उड़ते है
और कलई किये हुए बर्तन
जैसे चमकते है
खोखले लोगो ने
रंगीन तस्वीरों में
अपनी कमीज़ों की
आस्तीनें ऊपर कर रखी हैं
फिर भी,
यह मेरे दिल की कहानी नहीं है
यहाँ लोग चार दिवारी में
नंगे घुमते है
और बाहर मुर्दों के कपडे पहन कर
चलते है ,
इस शहर की बात ही निराली है
जूते सफ़ेद तो जुराबे काली है


...........मुकन्दा

घुन लगी बस्ती .....

रोज सूरज आता है
और अस्त हो जाता है
वक्त का हिसाब हमेशा चलता रहता है
पल पल के बाद पल आता रहता है
धुप का पीला रंग
घबडाकर नीचे की ओर बहता है
जुल्म का नर्म सूर्योदय और
शोषण का मखमली सूर्यास्त
बादलों का घर ध्वस्त करते रहते है
बैशाखी पे सवार
लंगडा विश्व
विदीर्ण मन से ओर विस्तरित होता रहता है
चारो ओर काली धुवे की लकीर
बोलने की कोशिश करती है
लेकिन क्रूरता का जोई इलाज नहीं
दरवाजे पर खड़ा होकर मै
डरे हुए पंछियों को लम्बी आवाज देता हूँ
पंछियों की चीखो के शब्द
धुप के नीचे जलती आवाज में जल जाते है
निस्सीम निःसंग हवा में
एक तारा बेहोश हो जाता है
शाश्वत चैतन्य का पहरेदार
मुझे जगाकर
विदीर्ण छाती के बीचों-बीच
प्रचण्ड वेग से प्रहार करता है
मंदिरों के पुजारी
प्रार्थना में लीन हो जाते है
और अग्नि को आकाश की ओर
उठाकर कहते है
आकांक्षा का मेघ अब बरसने वाला है
अपने धंधे और मुनाफ़े के लिए
धरती की ओर पीठ करके
निस्सीम निःसंग हवा में
दुनिया को डराते है
लहू सी लाल आँखों से
थक चुकी मिट्टी की ओर
अन्धकार का परचम फहराते है
खून को खून में बाँटते है
मनुष्यों को धर्म ओर जाति में छांटते है
छोटी छोटी दीवारों को
बड़ी करके आंकते है
भगवान नाम का बम
हर शहर हर गली
हर तालाब हर नदी में बहाते है
अजस्र उंगलियों से असन्तोष की आग में
तकदीर की आग जलाते है
पानी की छाया में
पेड़ उगाते है
लेकिन आप फिर भी कहते हो
कोई प्रशन नहीं करते हो
अविरल विश्वास में भुगती जाय सज़ा पे
विश्वाश करते हो
धरती न्याय मांगती है
और देखना चाहती है कि
रास्तों पर बने हुए तोरण
शान्ति का प्रतिबिम्ब है या नहीं
बचे हुवे तंग रास्ते
तराजू के काँटे पर बीचों-बीच
जाकर खड़े हो जाते है
पंगत पाप-पुण्य की तलवार से
ज़ुबान बन्द हो जाती है
ओर मै सौप देता हूँ अपनी गर्दन
ईश्वरीय धुंध पर
उनकी कुल्हाड़ी के नीचे ....
...................
आक्रोशित मन

पागल पहलवान और दुष्ट कौए


इस पागल पहलवान को

क्यों बुलाते हो अखाडे में

अखाडे की मिट्टी और दाव पेंच ,

कब का छोड़ चुका हूँ मै

अब मेरी मुठ्ठी में है मेरे शब्द

मुझे और क्या अच्छा लग रहा है

भैस के साथ जोहड़ में नहाना

लंगोट और ताबीज पहनना

मुझे तुम्हारे अखाडे में ज़रा भी मजा नहीं आता

हड्डी तोड़ने में कुछ नहीं रखा

जो जब ढूंढे, मैं उसका बन जाऊं,यही तो आस है.

अब बात ध्यान से सुनो ,

एक दिन गिद्धों के पीछे-पीछे कौए चले गए,

और अब सुबह दिखाई नहीं देते छत पर

कुछ दिन पहले,

एक कोवा मदन लाल हलवाई की दुकान के सामने,

मरी हुई चुहिया खा रहा था,

मैंने कहा रे दुष्ट शर्म कर

कहाँ है तेरा गाँव, तेरी जमीन, रिश्ते-नाते

क्यों छोड़ दिए तुने सबको

राग्गड़ का बेटा सतिया

उस दिन खूब रोया था

जिस दिन उसके गंजे सर पर तुने काटा था

दुष्ट तू उसे देखकर खूब हंसा था .

वो दुष्ट मेरी तरफ देखकर बेशर्मी से बोला

कि चिलचिलाती धुप में मैंने कितनी नौटंकी की.

और घडे का पानी पी ही गया ,

तू चुहिया की बात करता है

मै तेरी सारी भैसे चबा जाउंगा

जा मुर्ख मुकन्दा तू अपना रास्ता नाप

और अधखाई चुहिया छोड़ वह उड़ गया

जा बैठा बिजली के खंभे पर,

एक पैर पर बैठे-बैठे ताकता रहा.

और बोला

इतना गुरुर मत कर,

तेरा क्या लेना-देना शब्दों से कविता से ?

जा के पहलवानी कर ,

तेरा उज्जड दिमांग कविता के काबिल नहीं

भैसों और जानवरों के साथ रहकर तू भी

तू भी जानवर ही है अभी तक

फिर अँधेरा गहराता गया,

और अब एक-दूसरे को देखना भी संभव न था...................
मुकन्दा

मुकन्दा रचता है वो गीत ..


मैं रचता हूँ वो गीत
जो गाये जाते है चट्टानों पर
खेतो और खलियानों में
किन्तु क्या मैं वास्तव में गाता हूँ
नहीं,
मैं हकीकत को ब्यान करता हूँ
ब्यान करता हूँ अतीत की यातनाओं को
वर्त्तमान के संघर्षो को
और उजले स्याह जैसे दिखते
जीवन के हर पन्ने को
प्रत्येक पृष्ठ पर सीधी-सादी हैं मेरी कविताएँ
हेर फेर का खेल मैंने कभी सीखा ही नहीं
बेजुबानी शब्दों में मगन और
जो आनन्दों में खेल रहे है
ऎसे चिकने-चुपड़े श्रोताओं के सम्मुख
जुबां की मीठी स्वर लहरी खामोश रहती है,
नहीं उठाता अपनी कर्कश आवाज़ें
झिलमिल करते किसी मंच पर
ना ही दिल जिगर फेफेडो को
साथ लेकर चलने वाले गीतकारों के साथ
मैं अपनी दहाड़ वहा मारता हूँ
जहाँ आक्रोश के रोष ने अपना घेरा डाला है
अधजले भूतकाल ने अपने स्वर का
बे-हिसाब अनुचित उपयोग किया है
मैं कोई निवाला नहीं
जो मुह के अन्दर चला जाउंगा
एक आग का शोला हूँ
शब्दों और भावो का,
मेरी तीखी पैनी कविता
मेरी अपनी है ,जो रची गई है
मेहनत से ,
मेहनतकश लोगो के लिए ,
हे कमेरो ,
बस तुम मेरे हो
मेरी नाराज़ी का कारण
केवल तुम्हीं समझते हो
मैं उसे ही सत्य मानता हूँ
वह निर्णय जो तुम देते हो
मेरी कविता कभी आवाज
नहीं करती आप लोगो के सामने
तुम्हारे मन के भावों की आशाओं को
मैं निष्ठा से सुनता रहता हूँ
तुम्हारे दिल की हर धड़कन
मेरी अपनी है
मेरे शब्द तुम्हारी ही जुबान है
..................
मुर्ख मुकन्दा

Thursday, April 1, 2010

अलहे मोहब्बत



उन्हें हमने अपनी बाते क्या बताई

उन्होंने हमारी वफ़ा पे ही उंगली उठाई

हमने कहा हम कोई सौदागर नहीं है दोस्त

हमने तो सदा ही अलहे मोहब्बत निभाई
..................मुर्ख मुकन्दा