Sunday, March 28, 2010

पहलवान,मच्छर,नेता,और,आदमी.............




पहलवान पैदा होते ही
गूंगे हों जाते है
दबा के खाते है
प्रतिरोध के साथ लड़ते रहते है
अखाडे में जीतने के लीये

मच्छर पैदा होते ही
इंसान कों सताते है
और काटते हैं तभी
जब इंसान आराम करता है
या सो रहा होता है
और मौका देखते रहते है
इंसान का खून पीने के लिए

नेता पैदा होते हैं
उड़ते-फिरते हैं गलियों में,
ताकी कोई बच्चा सामने आये
और वे उसे भाषण की घुट्टी पिलाए
और थक कर बैठ जाते हैं
जानकर कि अब और बोलने से कोई फायदा नहीं
और ताक में रहते है
वोट खरीदने के लिए

आदमी पैदा होते ही
मुह फाड़ता है
ईंट,पत्थर, पेड़ और परिन्दों तक कों
हजम कर जाता है
क्यू की वह कहता है
ये सब चीजे खुदा ने मेरे लिए ही तो बनाई है
और ढूंड़ता रहता है किसी का रुमाल
अपना मैला हाथ पौछने के लिए..................
... मुकन्दा

सफ़ेद कालर वाली कमीज.....


हे जलेबी की भाँती
सीधे साधे उपदेशक
मैं पूछता हूँ एक बस शब्द तुम से ,
ये शब्द नहीं
बल्कि एक प्रश्न है ये
क्या तुम्हारी आँख का पानी अभी जिंदा है
मुझे याद नहीं ऎसा तुमने बताया था कि नहीं,
और यह देता है सिहरन भी, अगर यह असली चीज़ है,
ये कुदरत का नियम है की जब
यह पानी हमारी आँख से
मर जाता है
तभी हम दूसरो की आँख का पानी
ढून्दते है ,
और हम बुदबुदाते रहते है
"आज इंसान मर गया ,इंसानियत मर गई
लाज हया अब बाकी नहीं कोई "
जब ये चीजे मुससे जुदा हों जाती है
तब मैं दूसरो में ढून्डने लगता हूँ
ये बाते
क्यू की मुझे मालूम है
इन्हें मारने में मेरा सबसे बड़ा हाथ रहा है .
क्या तुम भी मेरी तरह ही हों ?
मुझे नहीं मालूम।
पर ये मालूम है ,
तुम्हे जब भी मौका मिलता है ,
तुम कभी भी मेरी तरह चुकते नहीं हों
लेकिन बिलकुल भिन्न तरीके से
जब यह शर्मसार ना हो,
क्यू की आप जानते है सफ़ेद कालर के पीछे
दुनिया के बड़े से बड़े अपराध छिप जाते है
इसलिए आप रंग चाहे कोई भी हों
पर कमीज उजले कालर वाली ही पहनते हों
इसिलए मैंने कालर तो क्या,
कमीज ही पहनना छोड़ रखा है
फिर तब?
फिर तब?
मैं कैसे फैसला कर सकता हूँ?
कैसे तुम दूसरे फैसला करते हो, मुझे बताओ,
जब तुम इस को खुल्लम-खुल्ला बोलते हो, खुले दिल से?
मुझे मालूम है तुम भी सफ़ेद कालर वाले हों
इसलिए मुझे ये तुम्हारी ये ढोंग सी भरी बाते
अच्छी नहीं लगती है
क्यू कि मुकन्दा कवि के साथ साथ
जमीं और मिट्टी से जुडा एक पहलवान भी है
और उस जमी हुई मिटटी की सुगंध
मेरे मन और शब्दों पर
अमित पर्त सी होकर जम गई है
मेरी शर्म बिक जाती है
जब मेरा चालाक मस्तिष्क
किसी की इमानदारी कों
अपनी बे-इमानी से तौलता है
क्यू की 'मुकन्दा' जब भी बोलता है
तो समझो की खून खोलता है.................
मुकन्दा

ज्ञान बिंदु का केंद्र बिंदु


तू फक्कड़ मैं अक्खड़
अपनों से ही लड़ जाता हूँ
हाथ मिलाते वक्त
दुसरो के हाथ में
नाखून चुभा देता हूँ
ये मेरे मानव होने का सबूत है
या मानव बनने का भूत है
मैं एक पहलवान
तुम भी एक पहलवान
फर्क इतना भर है
आप मर्मज्ञान के ज्ञान बिंदु हों
और मैं नीश्छल सा केंद्र बिंदु हूँ
मानव के बीच का

दुनियादारी...........


बहुत जरूरी हैं प्रेम और दुलार
इन्हें अपनी आदत में शामिल करो
इनके बिना हम रह नहीं सकते
इन्हें दुनियादारी में शामिल करो
अत्याचार और उपेक्षा से
तथ्यहीन विचार और बेचैनी जन्म लेती है
नफ़रत करते हैं हम
दिल की आग और अपने आँसू से
इन चकनाचूर आईनों में घृणा भरी होती है
जो नफ़रत की परछाई से टकराकर
भलमनसाहत बन जाती है
जो दोस्ती के रूप में दुश्मन बनकर
घुमते रहते है
लेकिन हमारे दो दुश्मन और भी हैं
ये दुश्मन हैं
अहंकार
और दूसरे पर हुक्म चलाने की आदत
इसे झटककर अलग करो
नहीं जी सकते हम
खुशी भरा जीवन
इन्हें झटके बिना

इंसान और आदमी..........


आदमी
जब सोता है तो ऐसा लगता है
जैसे लाश हो
और बतियाए
तो मधुमक्खी की तरह
भिनभिनाता लगता है
जब खाता है
तो बकरी की तरह दिखता है
जब जरुरी काम से घर से निकले
तो लगता है घोड़े जैसा
और बीवी कोई काम बताये
तो ऐसा लगता है
जैसे मरियल गधा
फिर भी इंसान जब सटकर
खडा हो जाता है चट्टान की तरह
मुसीबतों के सामने
और हौसले की दुआएँ करे...
तब लगता है वह
केवल तभी लगता है
की वह
आदमी की तरह है

अहद-ए-मोहब्बत को जीने ना देंगे ..............

जफा के ये धागे जो
उलझे है मन में
अहद--मोहब्बत को जीने ना देंगे
हयात- गमो के सायो में रहके
शय - -करीबी आने ना देंगे

तेरी इन्तेजां मेरी फकत आरजू थी
जो धागों में लिपटी कटी जा रही थी
फ़तह का जश्न मै मनाऊ भी कैसे
खुशियाँ तो सारी बटी जा रही थी
तंगी में फिर भी प्याले ना तोडे
खुशी के जाम अब पीने ना देंगे
अहद--मोहब्बत को जीने ना देंगे ..............

दो पहिये दो हाथ..............


स्त्री पुरुष जीवन के दो पहिये है
या यु कहिये जीवन रूपी शरीर के दो हाथ है
कहते है दोनों पहियों से गाडी चलती है
मगर आज बताता हूँ आपको कि
दोनों पहियों में क्या अंतर है
दोनों हाथो का फ़्रक देखिये
घर में शेर की तरह घुसता है
और घुस कर
अकड़ भरी भाषा में उसके बाल पकड़ कर खिचता है
मारता है गन्दी गालियाँ बकता है
अपनी शारीरिक भूख शांत करता है
अपनी ही शर्तो पर
अब आपसे ये दूसरा हाथ छिपा भी क्या सकता है
सब कुछ तो सबको पता है
वो बेचारी क्या मुँह खोलूँ ?
अधिकार के नाम पर करता है अत्याचार
उसकी हालत उस शहद की मक्खी की तरह है
ना ही शहद का लालच छोड़ती है
ना ही उससे निकल पाती है
और ये ही दरद उसके ह्रदय को सालता रहता है
अपने अधिकारों को किस तरह दूर उपयोग करता है
रोज शराब की बदबू उसके सीने में उतारता है
और उसकी टूटी चूड़ियों का तल्ख़ अहसास
उसकी लाख कौशिश करने पर भी
बाहर नहीं थूका जाता
अब वो कैसे छुपाऊ या क्यों छुपाऊ
अगर छुपाती है
तो दुसरे हाथ की पशुता को छुपाना होगा
और क्या कहू
उसके अन्दर पवित्रता ढूंड़ता है
और अपने अन्दर बहशी पन
मानो वो पवित्र करार दी गई भावना है
वो आपसे कोई सम्वेदना नहीं चाहती है
ना ही ये मानाभिमान की चर्चा है
ये तो बस हॄदय और स्वेच्छा पर किया गया
दुराक्रमण है जो आपको बता रही है मुकन्दा के मुह से
ये तो बस इसलिए है कि मन की बात कहने से
दिल का बोझ हल्का हो जाता है
और नहीं कहने से
अनादर ही अन्दर जलती है वेदना
जब मै दुसरे हाथ को देखता हूँ
यानी पति को तब पता चलता है कि जीवन क्यों खराब है
अब एक पहेये से गाडी कैसे चलेगी
एक पहिया मनुष्य के आँसू भी नहीं धो सकता
शायद प्रतिशोध में उबलता हुआ
रक्त ही धोएगा इसे
यह मुकन्दा का अनुभव है
ऎसा नहीं है कि यह हरियाणा के गाव में होता हो
समस्त भारत इसकी चपेट में है
हो सकता है और
और कभी कभी समाचार-पत्रों में अप्रकाशित
किसी घर के
दोनों हाथो के झगडो के चित्र छप जाते हो
परन्तु क्या क्या यह समस्या का समाधान है
क्या इससे स्त्री के अधिकारों को बल मिलता है
यह सोचने का काम मेरा और आपका है
उसका नहीं .... ..........................
..... मुकन्दा .......................

मुकन्दा की कब्र...

मुकन्दा अपनी कब्र
खुद बनाएगा
मरने के बाद उसी कब्र में दफ़न हो जायेगा
और हर रात उससे बाहर निकलेंगा
उठ खड़ा होगा कब्र के ऊपर
और छू कर देखेंगा कब्र का हर पत्थर
कहीं किसी ने
मिटा तो नहीं दिया
कब्र के पत्थर पर से मुकन्दा का नाम

भोजन की खोज में सब एक साथ ..


इस विशेष शहर में मुझे दिखाई देता है
हर तरफ एक विलक्षण और विहंगम दृश्य
आप को शायद दिखाई ना दे
आपको दिखाई देती होगी शहर के चारो और खुशहाली
गगनचुम्बी इमारते
कारो और मोटरों की भीड़
हर जगह पिकनिक सा मनाते हुए
नौजवान लडके लड़कियां
कवियों और कलाकारों ने ने अपना लिए हैं
जीवन से जीवन को अलहदा करने के ढंग
मोबाइल पर ही कलाकारी और कविता करनी सिख ली
बुद्धीजीवी अब कुछ नहीं सोच रहे
वे सूर्य से बिछुड़ते हुए से लग रहे है
और शहर में सूरज को ढूँढ रहे है
अन्तर्राष्ट्रीय संघर्ष के कारण
तरकी और पैसा कमाने के नाम पर
दुनिया एक हो गई
सब के सब जादू से बदलना चाहते है सब कुछ
पर क्या ये संभव है
धरती पर लाना चाहते है
एक व्यस्त झूठा और केवल अदृश्य झूठा स्वर्ग
चारो और मुर्दा शांति सी छाई है
शहर ही क्या सारे देश के सोचने का ढंग ही बदल गया है
आत्‍मा का सूरज डूबटा जा रहा है
और लोगो की नजर मोहब्बत को चूमना भूल रही है
मुझे दिखाई दे रहा है
खूबसूरत से इस शहर में,
पोटली में क़ैद इंसानी सोच और मौत का इंतज़ाम
मुझे दिखाई दे रहे है
यहाँ के बहतरीन नागरिक,
भागती कारे खनकते मोबाइल
भिखारी और नरकंकाल,
गुंडे और लुटेरे
माफिया और बदमाश
सब एक साथ
भोजन और तरकी की खोज में

भयानक कंधों के जुल्म...

ना जाने क्यों व्याकुल है इंसानियत के रहबर
क्यों आवाज नहीं निकल रही उनके होठो से
और आराम फ़रमा रहे हैं सभी दैत्य
हर कुकर्म कर लेने के बाद
व्याकुलता में तन सी गई है उनकी सोई आत्माये
उनके को के साए
और भी अधिक भयानक बना रहे है
उनके चेहरों को
बार- बार प्रेतात्माएँ
प्रकट होती हैं उनके चेहरों में
सपनों में उन्हे दिखते है वह अभिशप्त नगर
ज्ञात नहीं जिसे अपनी ही नियति
दिखाई देते हैं दौलत के स्तम्भ और उद्यान
सुबह की नींद में अलसाए हुए
जागते है जब वे

स्वागत में आतुर है उनके ढेर सारे फूल
जो खिलकर कब के मुरझा चुके हैं
सुरा और शबाब से भरपूर है उनकी राते
जो संकेत देते हैं शबाब के प्रेमी
सुरापान कर रहे पुरुषों में छिपे दैत्यों का
आरम्भ हो जाता है कुकृत्यों का दौर
अश्लील हो जाती है भाषा
गरमी आ जाती है वातावरण में और विवेकहीनता भी
बहन और बेटियों की अस्मत के सौदों पर
अपनी सुखद नियति की कैद में
किसके विषय में सोच रहे हो आप
कि वे आपके किसी काम आयेगे
साहस के पंख उडा ले जायेगे इनको
अगर तुम थोडा सा भी दिखा दो
तुम्हारे गुंगेपन से ही टिकी है इनकी कुहनिया धरती पर
और खो गए हो आप उनकी झूठी कहानियों में
किसमें थी इतनी शक्ति और विवेक
जो छीन सके आपकी आवाज
अपने गूंगेपण को दूर करो दिन बीतते ही
और अपने बुद्धिमान ललाट के बल
मृत कर दो इन दैत्यों को
जो आराम कर रहे है आपकी खाट पर ......
....मुकन्दा

जलते हुए सूरज से एक चिंगारी उधार लो


जलते हुए सूरज से एक चिंगारी उधार लो
और रख दो अपने आंगन में
और सहज कर रखो अपने दिल में
इसकी गर्मी की आंच के मरकज़ को,
इसी आग से लो आप
तमाम पाए गए शब्दों और अर्थों का ईंधन
और महसूस करो सुबह के सहज प्रकाश में इसके आनंद को
तपाओ देर तक कुम्हार के आवे की तरह
अपने शब्दों को इसमे
फिर देखो कैसे आकाश की ठंडी हवा में भी
कैसी फुसफुसाहट और जीवटता भर देंगे
आपके शब्द ,
और इस चिंगारी को खूबसूरत महत्वाकांक्षा की आग में
तपाना है आपको
लपेट बना देना है इसको
इस आग से कुछ आँच मिलेगी
आलोक का विश्वास जगेगा
हो जाएगी परख साथ ही
आपके कुछ शब्दों और अर्थों की
और उनके संग किए
चेतन-अचेतन कर्मों की
झूठे शब्द-अर्थ जल जाएंगे
साँच की लौ और चमकेगी
बसंत की शाखों से लिपट लिपट के
क्यों कि शब्द पैदा होते है ,
बातें करते और मर जाते हैं
अर्थों से अर्थों तक
एक प्रवाह चलता है
आज की अग्नि-परीक्षा में से
जो भी अर्थ जीवित निकलेगा
उसकी महिमा
आपके अपने जन्म लेने वाले शब्द कहेंगे
अंतहीन और गाते हुए,
सूरज से जन्मी ये आग
सूरज जैसी ही बन जायेगी
मुक्ति दिलायेगी आपको शोर से और धुंध से
और उस चंचल हवा से
जो बार बार आपके शब्दों पर हावी होती है
ये जीवंत आग जीवत बनाकर
अपने मान के हस्ताक्षर छोड़ जायेगी ...
...मुकन्दा

निराशा के पंख नहीं होते


निराशा के पंख नहीं होते
न होता है प्यार का चेहरा कोई
न वे बात करते हैं
न मैं हिलता हूँ
न देखता हूँ उन्हें
न बातें ही करता हूँ उनसे
दिल जिगर फेफेड़े इंसानी शरीर को चलाते है
इंसानी सोच को नहीं
सौभाग्य से सुंदर
दुर्भाग्य से वीभत्स
अंधों की निगाहों के लिए
निराशा को गले मत लगा
जीवन बहुत प्यार करने योग्य है
मेरे पास आओ
मै मस्त हो
हल्का हूँ
और उतना ही साफ हूँ
जितना बिन बदली आकाश
हे जोशीले युवक
संपूर्ण आवाज़
और इशारों से
अपनी जनता के
जीवन को
हवा की तरह सूँघ
और अपनी कलम से
बारूद के शोले उगल
बोल
ऐ मेरे प्यारे दोस्त बोल
दिल की बाते बारूद भर के बोल

निराशा के पंख नहीं होते


निराशा के पंख नहीं होते
न होता है प्यार का चेहरा कोई
न वे बात करते हैं
न मैं हिलता हूँ
न देखता हूँ उन्हें
न बातें ही करता हूँ उनसे
दिल जिगर फेफेड़े इंसानी शरीर को चलाते है
इंसानी सोच को नहीं
सौभाग्य से सुंदर
दुर्भाग्य से वीभत्स
अंधों की निगाहों के लिए
निराशा को गले मत लगा
जीवन बहुत प्यार करने योग्य है
मेरे पास आओ
मै मस्त हो
हल्का हूँ
और उतना ही साफ हूँ
जितना बिन बदली आकाश
हे जोशीले युवक
संपूर्ण आवाज़
और इशारों से
अपनी जनता के
जीवन को
हवा की तरह सूँघ
और अपनी कलम से
बारूद के शोले उगल
बोल
ऐ मेरे प्यारे दोस्त बोल
दिल की बाते बारूद भर के बोल

आती अभिलाषा कभी कभी


घर के उस कच्चे आँगन में
देखा था एक सपना कभी
दूर गगन की नील छाव में
मन का था मधुहास कभी
आशाओं के पंख छू छू कर
उड़ जाता था कभी कभी
नहीं प्यार नहीं मधुर मधु था
पर था उनमे आभास कभी

दिन भर खेत खलियान भागते
गौधुली में घर आते
निर्मल छाव थी बसंत की
उर मन से जब भी गाते
जिनके अर्थ से जागे आशा
देख उदासी भी थम जाए
भाग समय की उस धारा पर
गीत स्वर भी रच बस जाए

नैन सजल हो जाते सुनकर
व्यथा पीडा जब आती
मै माँ को यह समझाता तब
मन घौर निराशा क्यों लाती
कर मुझ पर विश्वास री जन्मी
मै क्या सोच रहा ,तुम क्या जानो
आने दे विश्वास के बादल
सब व्यथा पीडा पी लूंगा

ना जाने कब संगी साथी
हँसकर के लौटा दो बचपन
स्मरती की राह ढूंड़ता
मन का यह कोमल आलिंगन
वंचित सा अब भाग रहा हूँ
जिसको समझा प्यार कभी
आशा है फिर मिल जाएगा
मेरा निर्मित संसार कभी
एकाकीपन एकांत है निष्प्रभ,
अंधकार में खोये कभी कभी
थकता मन थकती साँसे अब
शब्द ना जाने क्यों गाऊ
आशा के इस भरे गगन पर
हास-विलास को समझाऊ

जिस आकाश से सूरज निकले
रात भी है उसके अन्दर
उन रातो को मधु के सपने
खो जाते तारो के अन्दर
जिसको जग अन्धकार है कहता
जीवन का सब सत्य यही है
प्रकाश पुंज का घेरा छोटा
है अन्धकार मेरे मन में

मेरे मन के इस निर्जन वन को
रोज जलाती ज्वाला भय
मेरी इन सूनी राहो को
रोज सजाती जीवन शय
निज जी लूंगा क्या पाउँगा
एकाकी बन मै क्या पाउँगा
दूर छिटक कर खो जाउंगा
धुंध में सहना कभी कभी
जो कल खोया आज भी पाया
सुख-दुख अपने किसको दू मै
बेचैनी में तडप जो उभरी
उस तडफन को किसको दू मै
शब्दों में विक्षिप्त अंगारे
मन में भयातुर सी ज्वाला है
एक साँस का खेल मुकन्दा
आकुल सा अशांत मुकन्दा

अपने दुःख को बढ़कर समझू
दूजे के दुःख को तिल तिनका
रोज चिता में जल जाता है
मै क्या जानू ह्रदय उनका
सबको छोड़ चली जब व्यथा
सबकी पीडा मन में हर लू
आती अभिलाषा कभी कभी

ज्योत्स्ना तुम प्राण बिंदु हो


ज्योत्स्ना तुम प्राण बिंदु हो
क्षितिज धरा का प्राण सिन्धु हो
अंक नभ में ज्योत तुम्हारी
मृदु वर्त्तिका सी ऑस तुम्हारी
तरणी का प्रलय सिन्धु हो
ज्योत्स्ना तुम प्राण बिंदु हो

कोमल व्यथा सजल सी आँखे
जिनमे बन आलोकिक लौ है झांके
धुल अचंचल से तुम गाथा
स्निग्ध लौ की तुम अभिराथा
उज्ज्वल तूलिका की चित्रबिंदु हो
ज्योत्स्ना तुम प्राण बिंदु हो

पाथेय बन एक रोज मुकन्दा
आहटहीन चंचल सपनों सा
तड़ित् भ्रम को रोज गिनेगा
नभ में खिली सिक्त शशिधर को
लघु विहग सा मन रोयेगा
छाँह उज्ज्वल सी राह बिंदु हो
ज्योत्स्ना तुम प्राण बिंदु हो........
............मुकन्दा

मुकन्दा के गीत ..


मैं रचता हूँ वो गीत
जो गाये जाते है चट्टानों पर
खेतो और खलियानों में
किन्तु क्या मैं वास्तव में गाता हूँ
नहीं
मुकन्दा हकीकत को ब्यान करता है
ब्यान करता है अतीत की यातनाए को
वर्त्तमान संघर्षो को
और जीवन के उजाले स्याह जैसे दिखते
प्रत्येक पृष्ठ पर सीधी-सादी हैं मेरी कविताएँ
हेर फेर का खेल मैंने कभी सीखा ही नहीं
बेजुबानी शब्दों में मगन और जो आनन्दों में खेल रहे है
ऎसे चिकने-चुपड़े श्रोताओं के सम्मुख
जुबां की मीठी स्वर लहरी खामोश रहती है
नहीं उठाता मुकन्दा अपनी कर्कश आवाज़ें
झिलमिल करते किसी मंच पर
ना ही दिल जिगर फेफेडो को
साथ लेकर चलने वाले गीतकारों के साथ
मैं अपनी भर्रायी आवाज़ें वहाँ उठाता
जहाँ आक्रोश के रोष ने अपना घेरा डाला है
अधजले भूतकाल ने अपने स्वर का
बे-हिसाब अनुचित उपयोग किया है
मैं कोई निवाला नहीं
जो मुह के अन्दर चला जाएगा
मुकन्दा तो एक आग का शोला है
शब्दों और भावो का
मेरी तीखी पैनी कविता
मेरी अपनी है जो रची गई है
मेहनत से ,
मेहनतकश लोगो
बस तुम मेरे हो
मेरी नाराज़ी का कारण
केवल तुम्हीं समझते हो
मैं उसे ही सत्य मानता हूँ
वह निर्णय जो तुम देते हो
मेरी कविता कभी आवाज
नहीं करती तुम्हारे मन के
भावों की आशाओं की
मैं निष्ठा से सुनता रहता हूँ
तुम्हारे दिल की हर धड़कन ..

मुकन्दा

ये गीत मेरे ये नज्म मेरी

ये गीत मेरे ये नज्म मेरी
संगीन तो है रंगीन नहीं
मै जीता हूँ इल्जामों में
तेरे गीतों पर इल्जाम नहीं

एक रात की बिखरी रात ye है
कुछ और बियाबां होने दे
चन्दा को निकल आने दे ज़रा
फिर रात निखर जाने दे ज़रा
एक एक कर के मै हर्फ़ लिखू
पल भर का भी आराम नहीं

मै अहवाल-ए-बशर को लिखता हूँ
जज्बे-एदिल भड़काता हूँ
तू हुशन लिखे और जिगर लिखे
मै जिगर के अन्दर जीता हूँ
ये बात हमारी दोनों की
इस तरह से यु अहराम नहीं

शब्दों के तीर से घबरा कर
सुनसान से तुम हो जाते हो
जिन पन्नो को तुम लिखते हो
न उम्मीद न जोश ही लाते हो
जो लिखते लाखो लोग यहाँ
मुझ पर वो इल्जाम नहीं

ये गीत मेरे ये नज्म मेरी
संगीन तो है रंगीन नहीं
मै जीता हूँ इल्जामों में
तेरे गीतों पर इल्जाम नहीं

अमरता

अमरता

जब अतीत के काले पन्ने
उजले बरखो पर उडेले जाते है
किसी कायर के द्वारा
और सभ्यता के नाम पर
संकोची विचार घुट्टी में पिलाए जाते है
धर्म की अफीम का नशा
इस कदर हावी होता है कि
जिस्म कटने पर
तब न ख़ून बहता है
न आँसू
जब धुप लोहा बनकर गिरती है
और खेतो से खून बहता है
जहां इंसान लहू से माथा धोकर
जेल की सलाखों से बाहर आता है
कवि का सन्देश गीत बनकर
समझ लो उस वक्त
कवि के गीत अस्त्र बन कर बाहर आते है
कवि के पास ना बन्दूक है ना गोला
परन्तु फिर भी कवी से जब दुश्मन डरता है
दुश्मन को उसके शब्दों से भय लगाने लगता है
और गोला बारूद होते हुए भी निहत्थे कवि को
कैद कर लेता है
बाँध देता है बेडियों में और
चढा देता है फांसी
परन्तु फांसी के तख्ते के नीचे होती है कायरता
और फासी के रस्से के बीच झूलती है अमरता
कायरता अमरता को कभी मार ही नहीं सकती
कुओ कि कवी तो जीता है
अपनी कविताओं में गीतों में
जनता के बीच में
लोगो के ह्रदयों में
काल के साथ साथ चलता है
कवी का कलम
ना मिटने वाले समय तक
और कायरता भस्म हो जाती है
खरपतवार की तरह चंद ही दिनों में
कोई याद नहीं रखता उसे
जब कि कवी लोगो के दिलो में हमेशा
जिंदा रहता है ..

मेरी कलम

मै जब भी कलम को लिखने को कहता हूँ
प्यार और रंगीन भरी कविता के लिए
वो स्याही की जगह लाल लाल खून छोड़ने लगती है
मेरे कोरे बरखो पर खून के छींटे बिखेरने लगती है
दरअसल, कलम का कोई कसूर नहीं
काफ़ी-कुछ सोच के बाद
उगते है उससे शब्द
बन्द स्कूलों की दीवारों पर,
अन्धविश्वास की सीढिया चढाते लोगो पर
कलम को नजर आता है
भूख और अक्षिक्षा से बेहाल लोग
पसीने से लथपथ मजदूर कमरे
और धर्म से डरे हुए लोगो की जेब काटते बेशर्म पंडे
चाहने पर भी कलम लिखने लखने लगती है
हैवानियत में डूबे उन लोगो पर
जिनके लिए धर्म का अर्थ
अपने और केवल अपनी खुशियों के ले लिए जीना होता है
वे चाहे किसी का गला काटकर आई हो
या मासूम बच्ची की चीत्कार से
मेरी चाह थी बादलों में,
जिंदादिल प्राणमय, चिन्हमय स्नेह में
मेरी चाह थी
जी भर-भरकर नई-नई फसलों में
सड़क के दोनों ओर निहारते हुए,
फसल उगाते खेत-मैदानों में,
मेरी चाह थी
उसके लिए गीत लिखू जो जीता है मेरे लिए
प्रेम को उजागर करू
परन्तु आज,
मेरी चाह है है, सिर्फ़ ख़ून में नहाते हुए,
धक्का-मुक्की में, जनता के जमघट में
टकटकी लगाए, हमारी और देख रहे
एक आस में
कि कैसे इस नर्क से मुक्ति मिले
कलम बार बार मुझे कहती है
सहेज लो मेरे शब्दों को और मुझे अपने सीने में
ताकि मैं टहल सकूं आराम से , इंसानों में ,सभ्यता में
मेरे शब्द सलेटी जरुर हैं राख की मानिंद
मगर उन तलक जाने वाली सड़क
रोशनी से सराबोर है

bnsesदिल...............

कुछ दिल
टूट जाते हैं
रूठ जाते हैं
लम्बे रास्ते ख़त्म हो जाते हैं
चलते-चलते थक जाता है मनुष्य
रह जाते हैं काले अंधेरे साए जैसे
यादों के लाल सुनहरी ख़्वाब
कुछ दिल लुट जाते हैं...
जब दिलो की साँसों का धागा
टूट जाता है
तब
कसाई के काटे जाने से
बकरे की कराह की तरह
चीरती लहूलुहान करती
आह की तरह भी हो जाते हैं दिल
ये तो दिलो की बात है
दिल बकरे का हों या कसाई का
होता दिल ही है
एक कटता है दूसरा काटता है ...
ठाकुर के खेत से
सेठ की तिजोरी तक
मेरा ही लहू बहता है
वही सबसे सस्ता है
सूरज की गर्मी से
नहीं झुलसता मेरा शरीर
उसे झुलसाता हैं
यंत्रणाओं का सूरज
सावधान मेरे शब्दो
तुम्हारे चारों ओर गिद्धों का घेरा है
जो तुम्हें नोंचने को आतुर हैं
सदियों से वे हमसे
गाली की भाषा में बोलते आ रहे हैं
यह उनकी संस्कृति है
प्रेम की कविता का
बेतुका बंद
मनुष्यता की कमीज पर
जाति का पैबन्द
टूटे जड़ता, सन्नाटा और
हलचल हो उनमें भी
जो रहते आए हैं चुप
मेरे दोस्त
मेरे लिए उस भाषा में
मंगल कामना मत करो
जो भाषा
कभी मेरी नहीं रही
जिसके लिए रहा मैं सदैव
अंत्यज, अस्पृश्य
हुई उलफत में आँखे चार , हम दिल हार गए
हुआ इस जुर्म का इक़रार, गुनाह बेकार गए

चलो अच्छा हुआ एक काम तुम्हारी अंजुमन में
हमने आँखों से पिला दी तो सरकार गए

सुना था उसको मोहब्बत से कोई सरोकार नहीं
मगर फिसले जवानी बन के तो दिलदार गए

यारो ये दौर आये राह-ए-नजात सब पर
काँटे ज़ुबान सीली तो नुक़्स-ए-बमबार गए

ये तल्ख़ मुकन्दा अगर क़द-ओ-क़ामत
शोला-नवा नहीं तो जाने-वफ़ा शर्मशार गए ...............................




क़द-ओ-क़ामत=डील-डौल
शोला-नवा=जिसकी आवाज़ में आग हो....


कद काठी कितनी भी बड़ी क्यों ना हो अगर इंसान के दिल में शोला-नवा नहीं तो सारी मोहब्बत बेकार ..

रिश्ते..............

जीने दो हर रिश्तो को
इंसान के सीनों में
हर रिश्ते में एक पहचान होती है
सूरज की गर्मी की तरह बढ़ती रहती जो
रिश्ते में जीना हो तो गुलाब को देखो
कांटो के बीच भी मुरझाने का नाम नहीं लेता
जूझता रहता है कांटो के बीच
दिल भर खिलने के लिए
रिश्तो का जीवन एक बीज के रूप में जन्म लेता है
और वयस्क होकर विशाल वृक्ष के रूप में
खडा हो जाता है सीना तान कर

रिश्ता दीर्घायु होता है वृक्ष बरगद जैसा,
जो मरकर भी अपनी जड़े फैला लेता है चारो और
रिश्तो से आती है सुगंध
रमणीय जल-कुमुदिनी की तरह
जो खिलती है केवल दिन भर के लिए;

रिश्ता कभी बोझ नहीं बनता
बल्की हमारी धुल की काया उस पर बोझ बन जाती है
बिना मोमबत्ती के चुपचाप
रिश्तो को रख दिया जाता है अंधेरे में?
आकाश में हजारो लाखो तारे है
मगर आँखों में चमक केवल चाँद से ही आती है ......................
......Mukanda

मुंबई कहा है...................

गाव के खेतो में काम करता
रोशनी के तरसता एक खुशहाल किसान
रोशनी ख़त्म करने के लिए
समंदर के किनारे
मुंबई के होटल में बैठा
लटके विश्वास में भटकता एक इंसान
जीवन के स्पन्दन और मृत्यु के कम्पन में
देखो कितना अंतर है
दोनों की शुभ्र मुस्कानों में
आत्मीय स्नेह में
दोनों ही निरउत्तर है
मगर मुंबई कि और आने वाली गाव की सड़क
अभी भी कितनी सुरक्षित है
कोई ठहराव नहीं आज भी इस पर
सड़क पर अब भी गोल गोल पहियों में
चलती गाडियों में घोर यंत्रणा है
यह मुंबई है
न मरे में है और न जिये में
जहां इंसान उगते है सड़क के किनारों से
लेकिन अख़बारों के हर हिस्से पर मुंबई की छाया है
इसकी जड़ें कभी नहीं सूखतीं
वे फैलती हैं भारत की नितल गहराइयों में
चट्टानों के पार तक धरती के भीतर
अपना रास्ता ढूंढती हुईं
मुंबई अपना अखबार रोज़ छपती है
नगर इसके भीतर रहने वाले इंसान
कभी नहीं पढ़ते इसे
प्रसन्न किसान प्रतीक्षा कर रहा है
मुंबई कि और जाने वाले वाहन की
आकाश की और ताकता होटल में बैठा इंसान
प्रतीक्षा कर रहा है वायुयान की
बर्बर समुद्र-तट से उठाती हवा बार बार कहती है
मुंबई कहा है
समंदर की दीवारों से कैद
जीता और मरता शहर
जहां फुटपाथ पर
बन्दूक से छूटी एक गोली है या रोटी का एक टुकड़ा
समंदर से सुरक्षित करने के लिए बनी दीवार
काम आती है विज्ञापनों के लिए भी
उस पर चिपके पोस्टरों पर
बरसती है बारिश
इकट्ठा हो जाता है समंदर का बहुरंगी जल
अभी भी शेष है वहाँ, उस दीवार की ओट में
सर छुपाने के लिए
गाव से आया वो किसान
प्रसन्न किसान
और होटल का इंसान
दोनों ही मुंबई की धड़कन है
हाथ बढा ऐ जिन्दगी तू आँख मिलाकर बात कर
कट जाए बस एक रहजबी में रास्ते का ये सफ़र
अब आये या ना आये मंज़िल ख़ुद को ना मायूस कर
तर्के तल्लुक तो क्या हुआ अनजान शय पर रख नजर
रद्द-ए-अमल हर चीज है ज़ुल्म-ऐ- जिगर को तोड़ना
एक ख्वाहिश है तेरे लिए हर चीज से ना तू रह बेखबर
गर दूर है कोई आसमाँ लखते -ऐ- दिगर सीढी बना
ज़िन्दा है तू जिंदगानी में , बस चाँद पर रख तू नजर

पागल पहलवान और कोवा

इस पागल पहलवान को
क्यों बुलाते हो अखाडे में
अखाडे की मिट्टी और दाव पेंच ,
कब का छोड़ चुका हूँ मै
अब मेरी मुठ्ठी में है मेरे शब्द
मुझे और क्या अच्छा लग रहा है
भैस के साथ जोहड़ में नहाना
लंगोट और ताबीज पहनना
मुझे तुम्हारे अखाडे में ज़रा भी मजा नहीं आता
हड्डी तोड़ने में कुछ नहीं रखा
जो जब ढूंढे, मैं उसका बन जाऊं,यही तो आस है.

अब बात ध्यान से सुनो ,
एक दिन गिद्धों के पीछे-पीछे कौए चले गए,
और अब सुबह दिखाई नहीं देते छत पर
कुछ दिन पहले,
एक कोवा मदन लाल हलवाई की दुकान के सामने,
मारी हुई चुहिया खा रहा था,
मैंने कहा रे दुष्ट शर्म कर
कहाँ है तेरा गाँव, तेरी जमीन, रिश्ते-नाते
क्यों छोड़ दिए तुने सबको
राग्गड़ का बेटा सतिया
उस दिन खूब रोया था
जिस दिन उसके गंजे सर पर कोवो के काटा
दुष्ट तू उसे देखकर खूब हंसा था .
वो दुष्ट मेरी तरफ देखकर बेशर्मी से बोला
कि चिलचिलाती धुप में मैंने कितनी नौटंकी की.
और घडे का पानी पी ही गया ,
तू चुहिया की बात करता है
मै तेरी सारी भैसे चबा जाउंगा
जा मुर्ख मुकन्दा तू अपना रास्ता नाप
और अधखाई चुहिया छोड़ वह उड़ गया
जा बैठा बिजली के खंभे पर,
एक पैर पर बैठे-बैठे ताकता रहा.
और बोला
इतना गुरुर मत कर,
तेरा क्या लेना-देना शब्दों से कविता से ?
जा के पहलवानी कर ,
तेरा उज्जड दिमांग कविता के काबिल नहीं
भैसों और जानवरों के साथ रहकर तू भी
तू भी जानवर ही है अभी तक
फिर अँधेरा गहराता गया,
और अब एक-दूसरे को देखना भी संभव न था

underतराजू के दोनों पलडॉ पर सवार

हे तराजू के दोनों
पलडॉ पर सवार
मेरे कलाकार दोस्तों
जब मैं
आपकी तरह छोटा था
मैं शब्दों से नहीं
मिट्टी से
खेलता था
जब मिट्टी थे
मेरे शब्द
मेरी दोस्ती थी
गेहूँ की बालियों से
मटर के दानो से
धान के पोधो से
जब मैं जवान हुआ
जमाने की
कारगुजारियों कों देखकर
तब क्रोध थे
मेरे शब्द
उस वक्त ज़ंजीरों से
दोस्ती थी मेरी
तब भी मैं
कवीता नहीं करता था
मेरी सही आवाज
जब कोई नहीं
सुनता था
तब पत्थर थे
मेरे शब्द
मैं लहरों का
दोस्त हुआ
और मेरे मन में
शब्द उछाले भरने लगे
जब विद्रोही हुए
मेरे शब्द
भूचालों से
दोस्ती हुई मेरी
पहलवानों से
लड़ाई हुई मेरी
और मैं कवी बन गया
जुल्म और शोषण के
खिलाफ
जब कड़वे सेब बने
मेरे शब्द
कवीता में गढ़ने लगे
मैं आशावादियों का
दोस्त हुआ
पर जब शहद बन गए
मेरे शब्द
मक्खियों ने
मेरे होंठ घेर लिए
फिर भी मैं तुम्हारी तरह
तराजू के दोनों
पल्लो पर कभी नहीं
नहीं बैठता था

मुझे कोई तो समझाये

मुझे कोई तो समझाये कि
आजकल
अखबारों के अलावा
देश की जनता
जुल्म के खिलाफ बोलती क्यों नहीं
और आवाज़ क्यों नहीं उठाती
तुमने देखा कि
देश के बारे में योजनाएँ बनाई जा रही हैं
और भ्रष्टाचार की चादर फैलने लगी है

मै आपसे कहता हूँ .. जाओ, ज़ोर से चीख़ो.
नेताओं के चमचो के कानो में
आदमी की आवाज बहुत दूर तक जाती है
बे-आवाज होकर भी
बुलंद आवाज़ से चीख़ो
"भिन्डी जैसी नाक वालो
तरबूज जैसी खोपडी वालो
और कद्दू जैसे पेट वालो
तुम सब चोर हो "
देखो, जवाब कौन देता है
सवाल करो और जवाब हासिल करो

ख़ासतौर पर हमें अपनी आवाज़ों में दम भरना पड़ेगा
जिससे ये फरिश्तों तक पहुँच सकें -
इन दिनों वे ऊँचा सुनने लगे हैं
हमारे चुप रहने के कारण
ख़ामोशी से भर दिये गए पात्रों में
गोता लगाकर गुम हो गए हैं वे

क्या इतने सारे भ्रष्टाचारों के लिए
अपने आपको तैयार कर चुके हैं हम
या अब ख़ामोशी की आदत-सी हो गई है ?
यदि हम अब भी अपनी आवाज़ बुलंद नहीं करेंगे
तो काई न कोई (हमारा अपना ही) हमारा घर लूट ले जाएगा

ऐसा हो गया है कि
सुभाष ,भगत सिंह जैसे
महान उदघोषकों की आवाज़ सुनकर भी
अब हम गौरैयों जैसे झाड़ियों में दुबक कर
अपनी अपनी जान की ख़ैर मना रहे हैं ?

कुछ विद्धानों ने हमारा जीवन महज सात दिनों का बताया है।
एक हफ़्ते में हम कहाँ तक पहुँचते हैं ?
क्या आज भी गुरुवार ही है ?
फुर्ती दिखाओ, अपनी आवाज़ बुलंद करो
रविवार देखते-देखते आ जाएगा
आज का शहर ............


जानता हूँ मै
कैसी होती हैं शहरो की सुन्दरताएँ,
कैसे बनता है सुन्दर नक्काशी किया प्याला
इस हवा
इन तारों
इन घोसलों से अधिक सुन्दर नहीं वो
मालूम है मुझे
जानता हूँ कौन है मालिक इस शहर का
हल्के पाँवों से आगे बढ़ता
मीनार की तरह ऊँचा
ईश्वर के डरावने और गुलाबी होंठों से
पंखों की तरह अलग हो गया है आज का शहर

मुकन्दा जब गुजरता है पास से

मुकन्दा जब गुजरता है पास से
उसके कन्धे पर होता है गुस्सा
या पहलवानी
या फिर कोई तल्ख़ शब्द
या बोझ
इसके इन ख़ूबसूरत कंधों को
छू सकता है अपनी हथेलियों से
सिर्फ़ उसका वजूद
या प्रेमिका
बाक़ी दूसरे लोग
बस देख सकते हैं इन्हें
या सुन सकते हैं इनके बारे में
उन लोगों से
जो गुज़र चुके हैं कभी
मुकन्दा के निकट से

अब आप ही बताइये ............

पीपल के पेड़ों से छनकर आई
धूप के नीचे
मेरी भैंस जुगाली की सवारी कर रही है
जब वह जुगाली का स्वाद
गले में गटकती है
मैं खुश होता हूं
परन्तु जुगाली के बाद भी
जब वह दूध नहीं देती है
मैं उदास हो जाता हूं
हर बार मै दूध देने के लिए
उसे मजबूर नहीं कर सकता हूँ
यहां हमारे जैसे बहुत से परिवार हैं
जो भैंसों को कठोर इंजेक्शनों से बींध देते है
हर रोज़ दूध निकालने से पहले
जीवाणुओं से सताया हुआ और
मच्छरों का खाया हुआ
भैंस का छोटा बच्चा
निशब्द दीर्घ कराह के साथ
त्वचा के उस पोर की पीडा सुनता है
जो माँ के साथ होता है हर रोज
हर रोज थनो में गर्म हो रहै दूध को
खुद ही सारा का सारा
पीने की चाह रखता है
मुझे उनसे ज्यादा खुशी महसूस नहीं होती
मुझे उनसे कम खुशी महसूस नहीं होती
तो भी मेरा मन अचानक गहराने लगता है
हाथी अपनी सूंढ़ को उठाकर गिराता है
मगरमच्छ जिन्दा रहता है खामोशी के साथ
छलांग लगाता है हिरन
और भैंस किस तरह जहर का स्वाद
चखती है
चारे के स्वाद के साथ
इंजक्शन के जहर का
जो दूध बनाकर हमारे खून को
जहर बना रहा है
अब आप ही बताइये
किस तरह का जानवर कहा जा सकता है मुझे ?

बहरहाल मैं खुश हूँ.

पहलवानी में उलझता हूँ
चाहकर भी ना सुलझाता हूँ
कुछ इस कदर लडाका सा
खुद से ही लड़ जाता हूँ
कभी कभी चुपके से
साए की तरह जाके
नजर बचाके
मम्मी का रखा
सारा दूध पी जाता हूँ
एकाकीपन की हालत में
बैलो से लड़ता हूँ
कुत्तो कों डांटता हूँ
भाई का मक्खन चुराकर
मजे से चाटता हूँ
पुरजोर कोशिशें करता हूँ
अखाडे में जाकर
बादाम खाकर
जीत के ही आउंगा
जीत का लबादा ओढे..
कदम दो कदम ही चलता हूँ की
मेरे साथ सिसकते
विलाप करते है मेरे शब्द
जीत के लबादे कों देखकर
जहाँ आलोकित नहीं होते अपने शब्द
दिन बीतते ही
अपने पहलवान ललाट के बल
मैं गिर पङता हूँ मृत लबादे पर
चिल्लाता हुआ: "क्षमा करना मुझे हे नेरे शब्दों" "
बहरहाल मैं खुश

कौन हों तुम ...................

कौन हों तुम
जो मेरे घर के सामने आकर
मेरा वोट माँगते हों
कौन हों तुम जो झूठे सपने दिखाकर
दिल तौड़ते हों
कौन हों तुम
जो मेरे दुःख दर्द बताकर
दुनीया में भीख माँगते हों
और मुझे पता ही नहीं चलता
कौन हों तुम
जो दिल रात
सता की कुर्सी पर बैठकर
सारी सुविधा चखकर
मेरे दुखो के बारे में सोचते हों
और तुम्हारे सोचने से ही
मेरे दुखो का आर पार नजर नहीं आता
कौन हों तुम
जो इतनी बुराइयों के साथ भी
सत्ता से चिपके रहने चाहते हों
कौन हों तुम
जो कुर्सी से उतरने का
नाम ही लेते
कौन हों तुम
जो कुछ भी पास ना होते हुए
देश कों बहुत कुछ देना चाहते हों
कौन हों तुम
जो आँखों में धुल झोकते हों
कौन हों तुम
और क्यू मेरे दुःख में रोना चाहते हों
और हमेशा सत्ता पर सोना चाहते हों
इस कुर्सी के बिना तुम्हे
मेरे दुःख क्यू नजर नहीं आते
ये इस कुर्सी का कमाल है
या तुम्हारी दूरदर्शी आँखों का
कौन हों तुम
जो मुझे चैन से मरने भी नहीं देते
कौन हों तुम
क्यों बैचैन हों तुम
इस कुर्सी की खातिर
मुझे बताओ तो सही
कौन हों तुम
जो मेरी भैस के कम दूध देने के कारण
दुसरे देशो में अनुसंधान कराते हों
और तुम्हारे अनुसंधान देश में लागू होते ही
मेरी भैस दूध देना ही बंद कर देती है
कौन हों तुम
जो पहलवानों कों तो आश्रय देते हों
ताकी आप सुरक्षित रहे
और इंसानों कों दुत्कारते हों
कौन हों तुम ......

मुकन्दा एक पहलवान है

मेरे बारे में हमेशा कहा जाता है कि
मुकन्दा एक पहलवान है
वो कवि की भांती
कही नहीं ठहरता
पर मैं चलता रहता हूँ हमेशा
मैं उनकी प्रतीक्षा नहीं करता
जो मुझे ढूंढ नहीं पाते है
उनके पास से दूर चला जाता हूँ
जो चाहते हैं मुझे मूर्ख बनाना
ठहर जाता हूँ मैं उनके पास
जिनके पास महसूस करता हूँ अपनापन
जिनके प्यार भरे दिल में जगह है मेरे लिए
और मेरी कवीता के साथ साथ
इंसानों की कद्र है जिन्हें
क्यू की कलम दिमांग की ताकत है
तो इंसानियत दुनीया की ताकत है
आख़िर
मेरी पहुँच में है
सब कुछ
कलम भी और ताकत भी
जहा एक पलडा
ताकत तौलता है
तो दूसरा शब्द तौलता है
क्यू की 'मुकन्दा' जन भी बोलता है
तो समझो खून खौलता है .........
..........

जिस संसार में मुकन्दा बसता है ....

जिस संसार में मुकन्दा बसता है
उस संसार की छत अलग है
उस संसार के बादल और हैं
उस संसार का सावन ज्येष्ठ जैसा है
आकाश अजनबी धरती बेगानी
उस दुनिया की अलग कहानी
मेरे सब ख़्त नाम तुम्हारे
पहली डाक में मुझे भिजवा दो
मेरी सब साँझें लौटा दो

कहीं गुम गया वो सूरज भी
सब्ज़ पहाड़ों पर चढ़ता था
चम-छम नदियों में नहाता था
खुले मैदानों में घूमता था
अखाडों में बदन रगड़ता था
पहलवानी में झूमता था
गहरे सरोवर में तैरता था
नीले अम्बर पक्षियों की कतारें
धूप में छम-छम पड़ती बरखा
क़ुदरत के उस बही ख़ाते पर
अपने पिछले दिन गिनवा दो
मेरी सब साँझें लौटा दो

मालूम है मैं नहीं हूँ मजनू
न मैं महीवाल ना ही रांझा
तू भी हीर
या सोहनी नहीं
फिर उलाहना गुस्सा कैसा
घूंघरू वाली भैंस के पीछे
तू मेले में आई न मिलने
न ही तेरी मोटर के पीछे
मैंने मुड़कर देखा
तेरी कुरती के बटनों पर
बोझ किसी दूसरी छाती का
अब मेरी कनपटियों पर भी
तेल लगाती हैं और उंगलियाँ
गुज़रे जीवन का वो टुकड़ा
समय के पटवारी को कह कर
सब लिखवा दे मेरे नाम
मेरी सब साँझें लौटा दो
मेरी सब शामें लौटा दो....
हम अपना हाथ

कैसे मिला सकता है उनसे

जो मिलाते ही हाथ

नाखून गडा देते है

जिससे भी वे मिलते हैं .

संगम

खून की नदी में
ज्वालामुखी का रोष
आँसुओं की नदी में
आँखों की चिंगारी का जोश
बोलने की नदी में
खून खोलने का दोष
और जहां ये तीनों नदी मिलती है
उस संगम को
मुकन्दा कहते है

जीवन प्रहरी..............

मैंने जीवन की राह को
कुछ पल देखा
उसका सच पकडा
पगडंडी पर खिले सारे फूल झर गए
आसावरी थम गई
तभी जीवन को
पीठ पर होने का अहसास किया .


कभी कभी सोचता हूँ
मेरे अन्तर्मन में
वो कौन सा प्रहरी है
जो इस राह पर
रोज चलने के लिए
पुकारता रहता है ...........
.....मुकन्दा

जीने की कोशिश............

आगे बढ़ाते हुए जीवन से
क्या मांगू मै
और क्या वापिस चाहिए मुझे
सच , अपनी कसम
सब दे दूंगा मै
परन्तु वापिस कर दो मुझे
मेरा वह भोला पन
जो पैसा कमाने की चाहत में
जवान होते ही छिन गया था
गंगा के बहते पानी की सुचिता
पेट की आग में राख में बदल गई
और वापिस दे दो
मुकन्दा के होठो की वो उच्छल हँसी
जो अखाड़े में जीत के बाद आती थी
कसरत भरे बाजू जो आज
बदहाल से हो गए है
रोटी की चाह ने ईमान दारी को
बहुत पीछे धकेल दिया
और संतान पैदा करने की चाहत ने
मेरे यौवन को मटियामेट कर दिया
छिन लो मुझ से आँखों में उभरती
चालाकी की वो चमंक
जिससे दुसरे इंसान धोखा खा जाते है
और वापिस कर दो
मेरा वो मस्तिष्क
जो दुसरे की भलाई के बारे में
सदैव सोचता था
यकीन मानो ये चीजे वापिस मिलते ही
अपने प्रचंड प्रहार से
एक ही पल में
शब्दों की देह से
आपने आपको बाहर निकाल दूंगा
चुप हो जाउंगा
और कहूंगा
मुझे जीना नहीं आता ........
....मुकन्दा

जिन्दगी ,जो देरी के लिए माफ़ नहीं करती

ये मुंबई की हवा
वो मेरे गाव के खेत
वो धान की ख़ुशबू,
ये मुंबई की चांदनी रात
ये हमेशा जगमगाती रहेगी
तब भी
जब मैं डूब जाउंगा
अरब सागर की अनंत गहराइयों में
क्योंकि ये सब मेरे आने से पहले थी
और बाद में मेरा हिस्सा भी न थी -
ये तो बस
संसार के मूल की प्रतिलिपि
ही थी वक़्त के वैभव की
परन्तु जो दुनिया 'मुकन्दा' ने देखी ,
वो असल थी, कोई प्रतिलिपि नहीं
परन्तु वहा तक जाने में
मुकन्दा को थोड़ी देरी हो गई
जिन्दगी की घूरती आँखे
जो देरी के लिए
किसी को भी कभी माफ़ नहीं करती
मैं इससे ज़्यादा और कुछ भी नहीं कह सकता
मैं इससे ज़्यादा और कुछ जानता भी नहीं
मेरी कलम


जब मै कभी उदास होता हूँ
मेरी कलम मुझे कहती है
है निर्लज्ज मुकन्दा
निस्पन्द निर्जनता के इस गहन अन्धकार में
अपने सुनहरे दिन को क्यों खराब कर रहा है
इस उदास चहरे को
धरती की तरफ क्यों ले जा रहा है
अनंत आकास की तरफ देख
जिसका कही कोई अंत नहीं
घोर निराशा तेरा स्वभाव नहीं
उठ,और खुद काँपने से पहले
अपने शब्दों से इस असह्य आक्षेप को
कप कँपा के रख दे ...
सफ़ेद होते तुम्हारे चहरे पर
दुःख की छाया व्याप्त है
नंगी धरती पर पर अपने आप को नंगा मत कर
अंधेरी हवा की अवगुंठित छाया पर
जीवन-नदी में सरकने के लिए
तैरना बहुत जरुरी है
बादलों के आकाश में
तुम्हारी सुनहली धूप
पवित्र और करुण आँखों से
तुम्हारी तरफ देख रही है
उजले और निर्मम में
तुम्हारा स्वागत करने को आतुर है
अन्धकार का निस्सीम व्यवधान
तुम्हारे लिए नहीं
तुम थामे रहो मुझको और डरना मत
तुम सिर्फ़ देखना
रो-रोकर थक जायेगी अपने आप
तुम्हारी ये अवसन्न व्याकुल जीर्ण उदासी
और सोचो कि तुम मेरे लिए हो
मत देखो घेरता हुआ अन्धकार... बिखरते केश
तुम सावन की बारिश की तरह देखो
मधुरतम क्षणों में भी जो
गाज बनकर गिरती है
मुसलाधार बारिश की तरह
और बहाकर ले जाती है
धरती का सारा कूडा करकट
तुम्हारी उद्धत उत्सुक विदीर्ण छाती के बीचों-बीच
स्वप्न की तरह
मै हमेशा तुम्हारे साथ हूँ
भीगी हुई अस्त-व्यस्त
इस भग्न पृथ्वी का कूड़ा-करकट बुहारती हुई
सुन्दर शीतल ममतामयी सुबह की तरह ..........................
...... मुकन्दा

घोडे की मजबूरी........

ये घोडे की मजबूरी है
या घास की
या कुछ पाने की आस की
सोये हुए जंगल से
आवाज़ दो
इन युवाओं कों जगाओ
इन्हें प्रेम या प्यार का अर्थ सिखाओ
इन्हें प्रेम से नहीं
प्रेम रोग से बचाओ
क्यों की प्रेम जीना सिखाता है
और रोग मरना और उदासी
इसलिए उठो
इस तिलस्म का जादू उतारने में
इन कवियों की मदद करो
और साबित करो
कि वे सारी चीज़ें अन्धी हो गयीं हैं
जिनमें तुम शरीक नहीं हो…’ ....
...मुकन्दा

शहर का अर्थ ...........

लो मै लौट आया
फिर उसी शहर में
जहां शहर का अर्थ
केवल कंक्रीट से बने जंगल और
चोडी चोडी सड़के ही होती है
गौरेयाँ का घोसला
और जामुन की हरियाली
कहाँ है मिमियाते हुए मेमने
और बगीचों वाली शामें ?
रोटियों की सुगंध
और उनके लिए उठती आग की लपटे कहाँ हैं?
कहाँ गईं वे पगडंडी
और आम की बिख़री हुई डाली ?
कहाँ ग़ुम हो गए सारे के सारे मोर बटेर
और सफ़ेद खुरों वाले हिनहिनाते हुए गधे
जिनकी केवल दाईं टांग खुली छोड़ी गई थी?
कहाँ गईं वे बारातें
और उनकी लजीज़ दावतें ?
वे रस्मो-रिवाज़ और पत्तल वाले भोज कहाँ चले गए?
गेहूँ की बालियों से भरे लहरदार खेत कहाँ गए
और कहाँ चली गईं कुम्हारों की गोल गोल सुराहीयाँ ?
हम खेलते थे जहाँ
लुका-छिपी का खेल देर-देर तक
वो खेत कहाँ चले गए ?
वो सुगंध से मदमस्त झाड़ियाँ कहाँ चली गईं ?
दिल दिमांग पर सीधे उतर आने वाली
पतंगे कहाँ गई
जिन्हें देखते ही
बुढ़िया के मुँह से निकलने लगती थीं गालियों की झड़ी
"हमारी खिड़कियाँ तौड़ने वालो
सब के सब तुम, छिनाल के हो-
मुझे मालूम है तुम कभी नहीं सुधरोगे
फूटो यहाँ से हरामजादो
मेरे बगीयाँ से चुराए हुए फूल
तुम कभी नहीं सूंघ पाओगे "

आख़िरी शब्द..आक्रोशित मन...

अपने बारूद भरे अल्फाजो में
बेरुखी की छाँव में
और बेगानेपन के लहजे में
उन्होंने मेरे शब्दों को बन्दी बनाया
और चुप रहने को कहा है

वे धमकाते हैं मेरे शब्दों को
फटकार के कोड़ों से
सहिष्णुता और निश्चित परम्परा के नाम पर
जब मेरे शब्द उनका विरोध करते हैं
इस नारकीय जीवन से मुक्ति पाने के लिए
लाखो करोडो मेरे अपने लोगो का
दुःख सुनाने के लिए
जिनके लिए दुनिया की
हर चीज छोटी है
उनके लिए संसार का सबसे बड़ा सत्य
केवल और केवल रोटी है
हम उनके बीच कैसे रह सकते है
जिनके लिए कविता
अपने वासनामयी प्यार की अभिव्यक्ति है
और भूखे इंसान उनके लिए तुच्छ व्यक्ति है

वे वहाँ से
स्वयं तो चले जाते हैं पर
मेरे शब्दों से कहते हैं--
नरक में ख़ुशी से रहो
हे अक्खड़ पहलवान के
बदमिजाज शब्दों

क्या तुमने मुझे देखा है?
दुर्गति मेरी बरसों से साथी है
मै प्रार्थना करते-करते थक चुका हैं
पर उसे सुनने वाला कोई नहीं है


"तुम कौन हो, मेरे दोस्तों
तुम कौन हो
मुझे ऎसी यातना क्यों दी है?"
"क्या मै नरक में खिले हुआ फूल हूँ "
क्यों मुझसे कहते हो
"मुकन्दा
इन तम्बुओं में तू क्या शब्द गढ़ेगा
एक शाश्वत पथ
उन लाखों लोगो के लिए नहीं
जिन्हें हम मनुष्य नहीं समझते"

मेरे आख़िरी शब्द इतना कहकर
चले जा रहे है
"हे दोस्तों
सुनहरे जीवन का
काफ़िला बन चलेगा
जब मेरे शब्द शांत होगे
ज्वालामुखी के गर्म लावा की तरह
जो सूखने पर ऊर्जा से भरपूर होता है
लहलहाती फसलो के लिए
और अपनी स्नेहमयी ओस से मै
ये नारकीय ज्वालाएँ शान्त कर दूंगा "
चार दिवारी में नंगे लोग



जिन्दगी एक चाहत है
एक सियाह और दर्द-भरी
पथरायी चाहत
उम्र के बोझ से बोझिल
और मेरे शब्द
मुलाक़ात का एक दरवाज़ा है
जहा रात और दिन पतझड़ से लधे है
जहा पत्ते चुपचाप उड़ते है
और कलई किये हुए बर्तन जैसे चमकते है
खोखले लोगो ने
रंगीन तस्वीरों में
अपनी कमीज़ों की आस्तीनें ऊपर कर रखी हैं
फिर भी
यह मेरे दिल की कहानी नहीं है
यहाँ लोग चार दिवारी में नंगे घुमते है
और बाहर मुर्दों के कपडे पहन कर चलते है
इस शहर की बात ही निराली है
जूते सफ़ेद तो जुराबे काली है '''''''''
'''''आक्रोशित मन..

मेरे शब्द............

इंसान धीरे धीरे जवान होता है
कभी लम्बी डग कभी छलांगे भरता है
और चलता रहता है ख़त्म हो जाने तक
लगातार चलते रहना उसके भाग्य में है
जब तक कि उसका नामोनिशान मिट न जाए
मेरे कदम शब्दों पर चलते है धरती पर नहीं
शब्द भी वे जो स्याही से नहीं खून से उगलते है
कागज़ पर पड़े स्याही के दाग फ़ीके पड़ जाते है
पर मेरे खून से पड़े धरती पर दाग हमेशा चमकते है
यह मुकन्दा ही है जो न जमता है न थमता है
न ही प्रतीक है
चेतना के आंतरिक घुमाव से निकली
उस ज्ञान की रोशनी का ना ही रोशनी के मिथकों का
मेरे शब्द बिना बरखो के लिखे जाते है
मेरे शब्द बिना देखे पढ़े जाते है
मेरे शब्द अटे पड़े हैं आहटों के जंगल में
रोशनी के क्षणांश में
उस घास में उन वृक्षों में
जो ना अभी उगे ना जमे है .....
......मुकन्दा

चलो दीपक जलाना है

जुबाँ खामोश है तेरी ,दिलो में कुछ विराना है
कही कुछ तो अँधेरा है , चलो दीपक जलाना है

चाँद गर साथ ना खेले , आसमान फिर भी काला है
मगर बेजोड़ हसरत में , एक नया सूरज बनाना है

रस्म-ए-रुखसत में ,क्यों करते हो चमन विराना
फकत एक फूल को तोड़ो ,जो आँखों में चढाना है

सियासी खेल में हमने ,ना जाने कितनो को मारा
दिलो में ख़ाक है बाकी मगर बुत फिर भी बनाना है

आइना हम से कहता है ,तू मुझसे दूर क्यों रहबर
नहीं तामीर बरखे हर्फ़ , खुद को खुद से बचाना है

मेरी रुखसार का नक्शा , करीने से नहीं सजाता
तुझे हर उजले पन्नो में , हमने फिर भी बिठाना है .. ..
...मुकन्दा

खुशी की शुआ

दिल-ओ-जाँ पे मुहीत है ,खुशी की शुआ तेरे
दर्द का धुंधला-सा तसव्वुर भी तेरे पास नहीं ............मुकन्दा

मुहीत = फ़ैली हुई
शुआ = किरण
तसव्वुर =ख़याल, विचार

एहसास -ए - पहरा

लगी लब पे पाबंदी
फ़रोग़-ए-मस्लहत
एहसास -ए - पहरा
देखो जबरजस्त ...

सोची थी सरपरस्ती

सोची थी सरपरस्ती
नूर-ऐ-जिन्दगी में
जीवन से जीवन अलहदा
अब उनकी बंदगी में

कई बार थामा दामन
ज़र्रे जिगर को चीरा
नहीं आया इश्क लब पे
मुश्किल हालात सारी
मैदान-ए-वफ़ा में सब कुछ
यू हारा दीवानगी में
सोची थी सरपरस्ती
नूर-ऐ-जिन्दगी में ...................

यहाँ रहगुजर है लाखो
जिनके है दिल फरेबी
हर एक निगाह से कातिल
जिसकी तमन्ना गरेबी
गुचा गली तस्सवुर
रहबर आवारगी में
सोची थी सरपरस्ती
नूर-ऐ-जिन्दगी में .....
....मुकन्दा

कोवो की पंचायत ......

गाव के कई
पगलाए हुए
आवारा कोवे
गाव के बाहर
खँडहर हुए
मंदिर के अहाते में
बैठकर
लगे जानवरों कों
कोसने
ये आजकल के जानवर
ना जाने क्या खाते है
इंसानों की तरह
लम्बी उम्र पाते है
मरते ही नहीं
अगर ये मरे
तो हम भी
इनके माँस कों चखे
और ये मुकन्दा
अपने आप कों
ना जाने क्या समझता है
हमेशा जानवरों का ही पक्ष लेता है
काश ये मुकन्दा भी मर जाए
और इसके सारे जानवर
भूखे मर जाए
तो हम रोज़
इसके ढोरो का
ढेर सारा मांस खाए
गनपतिया का
गंजा बेटा ललुवा
उधर से गुजर रहा था
कोवो की पंचायत देखकर
भागा भागा
माँ के पास आया
और कोवो की पंचायत का
सारा हाल कह सुनाया
माँ ने उसके गंजे सर पर
हाथ फिराया
और समझाया
मेरे लाल
ऐसा नहीं सोचा करते
कोवो के सोचने से
ढौर नहीं मरा करते
मुकन्दा की तो
बात ही अलग है
वो बेचारा कितना मजबूर है
कि हर जीव
चाहे ढौर हों या कोवे
सब कों एक सा
प्यार करता है
इन नामुराद कोवे की
आँखों में तो
ज्योति के बच्चे
मर गए हैं
ये काने कोवे
खोई हुई आवाज़ों में
एक दूसरे की
सेहत पूछते पूछते
बेहद डर गए हैं
इसलिए तू मुकन्दा और
उसके जानवरों की
चिंता मत कर
उसके ढोरों की तरह
मस्त होकर घूम .......


ढौर= जानवर

पद चिन्ह रेखा..............

मेरे पैदा होते ही
मेरे बाप ने
अखाडा बिछा दिया
और पहलवानी का काढा
घुट्टी की जगह पिला दिया
मेरी नाक के सामने
ओक्सिजन की जगह
प्रतिरोध की बदबू रख दी
ताकी हर सांस में
मेरे बाप का प्रतिरोध
मेरे ह्रदय के पार बिम्बित हो जाए
और ठूंस दी मेरे मुह में
गोलाबारी की भस्म
फिर फेंका उन्होंने
एक काग़ज़ और एक क़लम
मेरे हाथों में ठूँस दी एक सीमारेखा
कागज़ ने कहा तू भी
मेरी तरह कोरा है मुकन्दा
मेरी तरह तुझ पर जो लिखा जायेगा
वो कोरे शब्द नहीं
एक सनद बन जायेगी
मैंने धीरे से कलम को
कागज़ पर चलाया
कलम ने लिखा
तेरे लोगों में
शेष है अभी एक समूह
उदास चेहरे लिए घूमता है जो
लज्जित करता है हमें
मुकन्दा उनकी गरदनें कस दो
मै कहा -
हे कलम तुने ये क्या लिख मारा
हमारे बीच छेद हो सकते है
परन्तु मतभेद नहीं
कलम ने कहा-- प्रतिरोध
मैंने कहा मुझे कलंकित करना चाहते हो
मैंने फिर कभी वो कलम नहीं उठाई
बारिश की हर बूंद को
मैंने कलम समझा
टपक रही है जो
मेरे शब्द बनाकर
अतीत की छत पर
आज भी वो पुरानी कलम
चीत्कार कर रही है -- प्रतिरोध
आज भी
जीवन पथ पर
जब मैंने मुडकर देखा
ना मेरे पद चिन्ह है
ना पद चिन्ह रेखा ..........
..मुकन्दा

मुकन्दा के शब्द...........

मुकन्दा के शब्दों से भय लगता है आपको
मगर उनसे बचना सम्भव नहीं
क्यों की मिट्टी से सने शब्द होते है मेरे
उसी मिट्टी से जिससे हमें सब कुछ मिलता है
जब इंसान का मन आक्रोशित होता है तब
मर्यादा में रहकर बोलना सम्भव नहीं
मुकन्दा के आक्रोश भरे गीतों की धुनों को
व्यथा के राग में नहीं गाया जा सकता
भूख से बेहाल और लहूलुहान बातो को
जोर -ज़ोर से चीख़-चीख़ कर छाती पीटकर
कहा जाता है चुपके से नहीं
ये बात याद रख लो
अधिकतर कवि अपनी अजीब कविताओं
और अपनी तस्वीर के अलावा
कविता का अर्थ कुछ नहीं समझते
जैसे इंसानों में धूर्त
जानवरों में बघेरा
या घर के नौकरों में गद्दार
आसानी से नहीं पहचाने जाते हैं
हम जिसे जानते है
बिना छिपाए कह दो वह बात
जिससे धड़के सब का दिल
कविता से भी जब ख़ून टपक रहा हो
छिपाया नहीं जा सकता उसे शब्दों की ओट में
क्यों कि जख़्मों को धोने वाले हाथों पर
कभी कभी खून भी लग जाता है
और तीर से कई निशाना साधने वाले कवि
कमान तानने वाले गीतकार
जुलूस के लहराते हुए झंडे बन जाते है
इंसान के जीवन को पत्थर बनाना
काम नहीं है कैसी भी कवि का
परन्तु फिर भी बहुत से कवि
इंसानों के भावो को बुत बनाते रहते है
कवि का काम तो होता है भावो में भाव भरना
हे शब्दकारो मुकन्दा की तरह सीधी सच्ची बात कहो
हेर फेर का खेल छोडो
और मत हिचको, ओ, शब्दों के जादूगर
जो जैसा है, वैसा कह दो
ताकि वह दिल को छू ले
इंसानों के भावो को कह सके ................
.... मुकन्दा

मक्कारी भरा शहर..............

ना जाने क्यू
ये शहर मुझे
मक्कारी भरा लगता है
बिना रंगों के भी देखो
लाल ,पीला,हरा लगता है
इंसानों से डरता भी है
और उन्हें डराता भी है
इन्साफ के नाम पर
कानून कों खाता भी है
और चुराता भी है
मैंने जितनो की भी
पुँछ उठाई
सब मादा नजर आये
कोई नर
नजर आता भी है
"तू मेरी मैं तेरा
तू मुझे दिल दे
मैं तुझे दिल दू "
इसके अलावा इन्हें
कुछ आता भी है...
...mukanda
धीरे से गम-ए-जावेद है दिल,एक हिजराँ शब्-ए-अंदाज़ है ये
सूरत पे सितमगर हुस्न भी है ,मालूम नहीं क्यों आज है ये .
...mukanda..

मुकन्दा एक पहलवान है कवि नहीं

मेरे बारे में हमेशा कहा जाता है कि
मुकन्दा एक पहलवान है
वो कवि की भांती
कही नहीं ठहरता
पर मैं चलता रहता हूँ हमेशा
मैं उनकी प्रतीक्षा नहीं करता
जो मुझे ढूंढ नहीं पाते है
उनके पास से दूर चला जाता हूँ
जो चाहते हैं मुझे मूर्ख बनाना
ठहर जाता हूँ मैं उनके पास
जिनके पास महसूस करता हूँ अपनापन
जिनके प्यार भरे दिल में जगह है मेरे लिए
और मेरी कवीता के साथ साथ
पहलवानी की कद्र है
क्यू की कलम दिमांग की ताकत है
तो बाहुबल दुनीया की ताकत है
आख़िर
मेरी पहुँच में है
सब कुछ
कलम भी और ताकत भी
जहा एक पलडा
ताकत तौलता है
तो दूसरा शब्द तौलता है
क्यू की 'मुकन्दा' जन भी बोलता है
तो समझो खून खौलता है ............
.................आक्रोशित मन...

हे मेरी प्यारी माँ ...

एक किसान के घर जन्मी
एक महनत कश किसान की बेटी
सुबह की ताजी -सी शीतल
गम्भीर लहलहाती फसलो सी शांत
सहिष्णुता की देवी ,
धरती माँ की तरह विशाल
हे मेरी जन्मदायनि माँ
अपने आँचल में दुनिया को समेट लेने की
चाह रखने वाली
हे मेरी प्यारी माँ
सिर पर लिपटी ओढनी
फेंटा कमर में,नंगे पैर
लांघ खेत खलियानों की कँटीली झडियाँ
पीठ पर गट्ठर का बोझ
जाती है धीरे-धीरे चलते हुए
खेतो की पीठ-दर-पीठ
पार कर जाती है धीरे-धीरे
अनेक टेढे मेढे रास्ते
कुओ की गहराई से खीचकर
भर कर पानी, पका कर खाना
दूर, निर्जन कष्टकर रेतीले खेत पर
मेड़ से मेड़ तक श्रम-ध्वनि पूर्वक खुदाई के बाद
विश्राम से रहित
सभी बच्चो के लिए
धरती को चीर कर अन्न उगाने वाली
तू कभी नहीं थकती हमेशा चलती जाती है
पोंछते हुए पसीना आँचल से
हे मेरी माँ

एक दिन पूछा मैंने--
माँ कहा से आती है ये शक्ति और ज्ञान तुझमे
वो धीरे से मुस्काई
मै जन्म दायनी हूँ
मुझे पता है जीवन कैसे आता है
और कैसे पलता है
उसके लिए मुझे किसे स्कूल कालिज जाने की
जरुरत नहीं
कुदरत ने वो ज्ञान मुझे स्वभाव में दिया है
की एक माँ अपने बच्चो को कैसे पालती है
मेरे लाल मुकन्दा
तू पढ़कर बहुत सिख गया मेरे बच्चे
पर जब फुरसत मिले इस माँ के
हृदय को पढ़ना
संसार का समस्त ज्ञान इसके सामने बौना है
क्यों की ज्ञान और जीवन का सर्जन तो यही से होना है
मै विस्मय से--
माँ के चारे को ताकता रहा
देखा माँ ने मुझे एक बार
फिर हरा दिया
आखिर माँ तो माँ होती है
पिता बीज है तो माँ धरती
बीज को अपने भीतर से
पौधा बनाकर बाहर निकालती है वो
और इससे पहले की समझा पाती
कुछ और या पूछ पाता मै
कुछ और सत्य
चली गई
चली गई पहले की तरह
मुझे निरउत्तर सा छोड़कर
अपनी गुरु-गम्भीर चाल से
बच्चो की बेहतरी के लिए
उन खेतो खलियानों की और
जहां से मिलाती है ऊर्जा
सृजन शक्ति की
चाहे वो जीवन हो या अन्न
मै नहीं भूल पाउँगा तुझे
हे मेरी प्यारी माँ ... ,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,
,,,,आक्रोशित मन...

देख तमाशा भाग गया वो ...........

क़तरे को इक दरिया समझा, दरिया कों समझा महासागर
ख़ुद को इतना सस्ता समझा, सस्ते कों समझा घन गागर
तन पर तो उजले कपड़े थे, अन्दर चमडी पर मेल लोटता
उन लोगों को अच्छा समझा, जिन लोगो के दिल में खोट था
मेरा फ़न तो बाज़ारों में, उस नागराज के साथ खडा था
जिन सांपो ने डसा रोज ही ,उन सांपराज से रोज लड़ा था
बीच दिलों के वो दूरी थी,जब मैं और वो पास खड़े थे
आँखों को इक रस्ता समझा,आपस में जब खूब लड़े थे
खुद को खुद की खुद्दारी में देख तमाशा भाग गया वो
ख़्वाबों को इक बच्चा समझा, सोते से फिर जाग गया वो
गैर समझते थे हम जिसको ,और रिश्ते तोडे मौड़ माड कर
खातिर मेरी तन्हाई की , वो साथ चला सब छोड़ छाड़ कर .... ......
.....मुकन्दा

देख तमाशा भाग गया वो ...........

क़तरे को इक दरिया समझा, दरिया कों समझा महासागर
ख़ुद को इतना सस्ता समझा, सस्ते कों समझा घन गागर
तन पर तो उजले कपड़े थे, अन्दर चमडी पर मेल लोटता
उन लोगों को अच्छा समझा, जिन लोगो के दिल में खोट था
मेरा फ़न तो बाज़ारों में, उस नागराज के साथ खडा था
जिन सांपो ने डसा रोज ही ,उन सांपराज से रोज लड़ा था
बीच दिलों के वो दूरी थी,जब मैं और वो पास खड़े थे
आँखों को इक रस्ता समझा,आपस में जब खूब लड़े थे
खुद को खुद की खुद्दारी में देख तमाशा भाग गया वो
ख़्वाबों को इक बच्चा समझा, सोते से फिर जाग गया वो
गैर समझते थे हम जिसको ,और रिश्ते तोडे मौड़ माड कर
खातिर मेरी तन्हाई की , वो साथ चला सब छोड़ छाड़ कर .... ......
.....मुकन्दा

एक दिल के सौदागर ने

एक दिल के सौदागर ने
मेरे दिल का मौल लगाया
दिल खौल के पैसा खर्चा
फिर भी दिल को ना पाया

अब दूर नहीं मैखाने
अफसोस चले पैमाने
साग़र भी बना साकी सा
सय्याद सा फिर वो आया
दिल खौल के पैसा खर्चा
फिर भी दिल को ना पाया............

क़ाफ़िर पूजेंगे बूत को
कज कुलाह की वाह-वाह
इस उलटपुलट में पीकर
देख हो गई हां हां
वस्ल दिवानेपन का
फिर भी मुझको ना भाया
दिल खौल के पैसा खर्चा
फिर भी दिल को ना पाया ..........
.मुकन्दा ///

क्या करे कोई जब किसी से कहा भी न जाए और तन्हा अकेले दर्द
आगे सहा भी न जाए..मैं तो जिन्दगी का आभास हूँ सृष्टी रचनेवाले की रचना हूँ,,,,,










जब शब्द कलम से नहीं
नाखूनों से लिखे जाते है
और बारूद के धुओ से , छुरों से
मैं गाऊंगा कैसे
अपनी लाचारी में , शोषण में
अस्पताल में, जुल्म के नीचे
बेरोज़गारों के बीच, पिंजरों में फंसी हुई
लाखों बुलबुलें मेरे भीतर हैं
मैं गाऊंगा
कैसे गाऊंगा
अपने संघर्ष के गीत
मैंने राष्ट्र के कर्णधारों को
सड़को पर
किश्तियों की खोज में
भटकते हुए देखा है................



अतीत का मनन और मन्थन हम भविष्य के लिये संकेत पाने के प्रयोजन से करते हैं। वर्तमान में अपने आपको असमर्थ पाकर भी हम अपने अतीत में अपनी क्षमता का परिचय पाते हैं...मनुष्य से बड़ा है-केवल उसका अपना विश्वास और स्वयं उसका ही रचा हुआ विधान.. अपने विश्वास और विधान के सम्मुख ही मनुष्य विवशता अनुभव करता है और स्वयं ही वह उसे बदल भी देता है.. इसी सत्य को अपने चित्रमय अतीत की भूमि पर कल्पना में देखने का प्रयत्न है। मैं
भूखे, थके हुए, क्लान्त और निर्वासित लोगों की कर्कश आवाज़ हूँ .......

मुकंदा गूंगा है..........

पेडो की छाल गिनकर
नदी का पूल बांधने वालो
मेरे अजीज दोस्तों
पहले मैं गूंगा नहीं था
वैसे तो आज मैं गूंगा नहीं हूँ
परंतु कुछ बौखलाए हुए मेढ़कों ने
मेरे कान में रुई ठूंस दी है
और मुझे गूंगा बना दिया
वैसे मैं उनकी वजह से नहीं
आपकी खातिर गूंगा बना हुआ हूँ
क्यू की आप सत्य कों झूठ
और झूठ कों खरबूजा जो बोलते रहते हों
वरना किसमें थी इतनी शक्ति और विवेक?
जो मेरे गले की आवाज़ छिनता
मुकन्दा आवारा सांडो से कभी नहीं डरा
मुझे आप लोगो से डर लगता है
क्यू की आपका विवेक मुझसे बड़ा है
तुम रो नहीं पाते उसके लिए
जिन्हें इन सांडो ने
गले के स्याह जख़्म दिए है
हे दोस्तों सम्मानोचित है तुम्हारी प्रशंसा, तुम्हारा प्रेम,
सरल, सहज है तुम्हारी हर रचना
पर तोड़ चुकी है दम मेरे शब्दों की बुलबुल
अब शब्दकोश ही एकमात्र उद्यान है
बर्फ़, पहाड़ और झाड़ियाँ
चाहता है कि मैं गाता रहूँ, उन्हें
कोशिश करता हूँ कुछ बोलने की
पर होँठों को घेर लेता है गूंगापन
गूंगे मन का हर क्षण
होता है अधिक प्रेरणाप्रद
उन्हें चाहते हैं सहेज कर रखना
जब तक सम्भव हों मेरे शब्द
बस, कैसे भी राहत मिले
तनी हुई मेरी इन नसों को
सब कुछ रट डालूँगा मैं
जिसे गाने का आग्रह किया जायेगा मुझसे


हासिल है तो फिर क्या हासिल....

हासिल है तो फिर क्या हासिल
कुछ और भी हासिल होता है
बोलूँगा तो फिर क्या बोलू
सय्याद भी एक दिल रोता है
आग़ाज़-ए-बद हासिल है तो क्या
मेहर-ए-क़यामत हासिल है
हासिल है बंदा बुतखाना
नहीं नाज़ से काफिल होता है
ये पर्दानशीं जब उठ जाए
आँखों से भी हासिल होता है
मजलिस में गए जब दीवाने
अग़्यार भी हासिल होता है
मुँह देख-देख हम रोते हैं
हँसने के बदले वो हासिल
नाचार भी है लाचार भी वो
आज़ाद हुए जब वो हासिल

दीदार-ऐ-नजर .............

जब शोख चली बाद -ऐ-शबनम
दीदार-ऐ-नजर कई बार हुए
काशीदे -दिल हसरत जागी
बेबाकी मगर एक बार हुए

एक चश्म-ए-अदा गुलफाम हो तुम
जीने का नया अंदाज हो तुम
इक नज़र देख लूँ आ जाओ
यूं परदानशीं कई बार हुए

हर रोज़ ख़ुदा आबाद हुआ
हँस हँस के कोई बर्बाद हुआ
मरने का इरादा बदल गया
क़ज़ा से जब दर्शन चार हुए

काबिज -ए-मोहब्बत जोश है हम
उलफ़त-ए-तक़वा होश है हम
ख़्याल-ए-जुम्बिश की फ़िक्र करो
तुम जैसे मुकन्दा हजार हुए ................
........मुकन्दा ....

साधुराम हलवाई या नाई...........

कल हलवाई के भेष में मिल गए साधुराम
बोले आ रे मुकन्दा तू दूध पिएगा या जाम
मैं बोल्या रे ताऊ तू ,कल तक तो था नाई
हुई क्या जो बात जो अब बन बैठा हलवाई
बन बैठा हलवाई मैं आया था बाल कटाने
बाल कटा सोचा था , जाउंगा लड़की पटाने
बोल्या सोच समझ के सुन रे भाई मुकन्दा
गंजो के इस देश में ,ना चले नाई का धंधा
ना चले नाई का धंधा क्या मिलता था बाल कटाई
सारे चटोरे इस शहर में ,सो मै बन बैठा हलवाई ..
..... मुकन्दा

लंकापति नहीं जानी रे

खेलत राम रावण दुहूँ संगे
लंकापति नहीं जानी रे
तिय कौ मन सिया संग बसियाँ
मीडै उतै उत पानी रे
मीठै बैनन तहु छांड़ी तीरे
दावभाव सभु आनी रे
ढरकौहे नैन टेक सिया उर से
उर लागी दुहून वाणी रे
रामचंद्र आये सूझयौ पुछू
घरि भीतर भाहू तानी रे
मधुपावलि मधु वार 'मुकन्दा'
सौं खाइ धका लंका जानी रे .............
मुकन्दा
अह्द-ए-वफ़ा की अहद क्या जानू ,आई हयात जो आनी है
रंग-ए- बदर गुलफाम "मुकन्दा" ,बाद-ऐ-वफ़ा क्या जानी है .
................मुकन्दा

पहलवान राजा.......

सरकार हो कैसी भी
पर राजा पहलवान ना हो
महान पहलवान का जीना हराम होता है
लड़ता है जब वह आज़ादी के लिए
जीता है जब वह मूल्यों के लिए
खडा होता है जब वह
शोषण के खिलाफ
नकेल कस देता है जब वह
अपराधियों पर
जीना हराम कर देता है उनका
जो इंसानियत को कभी जीने नहीं देते
खडा हो जाता है
उनके सामने जो बारिश की बूंद पर चढ़कर
आसमान पर छेद करना कहते है
काल बन जाता है उअके लिए
जो अभिमान, क्रोध, अहम की आग में
दुसरे का उपहास उडाते है
डर के कापने लगते है वे लोग
जिनके लिए सारी चीज़ें अन्धी हो गयीं हैं
जहां से मानवता का बीज बोया जाता है
और जहां जाती धर्म को पकाकर खाया जाता है
नफ़रत और रोशनी में भेद करते है
जिस थाली में खाते है
उसी में छेद करते है
चुकाता है पहलवान राजा मूल्य उसका
अपनी ताकत से
अफसरशाही तंत्र एकजुट हो जाता है
वे समस्त चीजे जिन्हें वह बांधना चाहता है
एकजुट होकर विषाद का बीज बोने लगती है
उसके साम्राज्य में
खा जाता है हर शब्द
जो अन्याय के खिलाफ होता है
पहलवान राजा ही देता है शक्ति
प्रताड़ित जनता के कष्टों को
होता है जब कभी वो राजा सदियों में एक बार
और उअसके बाद
करता है तांडव शैतान
पहलवान की छाती पर
करता है वह क़त्ल
आज़ादी को उसी आज़ादी से
नहीं सुनाई देती इसी वज़ह
महान पहलवानों की आवाज़
आज के दौर में

कई बार मेरे इस दिल को छुआ........

दिल के झरोखे में झांका जब
एक बार नहीं कई बार हुआ
मासूम अदा तेरी बातो ने
कई बार मेरे इस दिल को छुआ........

मधुमास महकती रातो में
संपुट हिय मन जलता ही रहा
जब जानहु जिउ ,जिउ से जुड़ता
मन सहज हुआ दुइ पलता रहा
अवसाद घिरे काले बादल
क्षण-क्षण में झनक गई उनकी दुआ
कई बार मेरे इस दिल को छुआ.........

मत नीरस है जग प्यार भरा
फुल्ल शतदल से आकाश भरा
सोचा मन प्रिये तुम आ जाओ
अंतस्थल में तुम छा जाओ
अवसाद मुखर आंसू बहते
तम निर्झर में कोई स्वपन खुआ
कई बार मेरे इस दिल को छुआ....
............. मुकन्दा

पेड़ और इंसान ......

चक्रवात के एक झंजावत ने
किनारों कों मिटाने का जब नाम लिया
काले समुद्र ने कै की थी
बर्बर समुद्र-तट से.
सुन्दर हरित मैदान के ऊपर
काली लाल आँखों वाला वो पिचाश
घूरने लगा पेडो कों,
इंसानों कों..
पेड़ गिरने लगे थे,
इंसान मरने लगे थे.
पेड़ गिर गए,
इंसान मर गए..
पेड़ों के भव्य तने
तूफ़ान से ध्वस्त हो गए,
इंसानों के हौसले प्रस्त हों गए..
इंसान और पेड़ दोनों निर्जीव हो गए..
पेड़ हे पेड़ ,हे इंसान
क्या तुम मर सकते हो?
सुर्ख़ नदियों ने पूछा.
प्यारे पेड़ और जद्दोजहद भरे इंसान,
तुम्हारी जड़ें लबालब भरी हुई हैं,
युवा अवयवों से तैयार गहरे हौसले से..
प्यारे पेड़ और धरती के दुलारे इंसान,
तुम दोनों की की जड़ें कभी नहीं सूखतीं..
क्यू की तुम दोनों ही साँसों से जीते हों,
तुम्हारी जड़ें फैलती हैं नितल गहराइयों में,
चट्टानों के पार तक धरती के भीतर,
अपना रास्ता ढूंढती हुईं
मुकाम तलाशती हुई
तुम्हारी जड़ें कभी नहीं सूख पायेगी ....

अन्तरात्मा का गणतत्र...........




अपनी अन्तरात्मा की
ठण्डक और
अनम्य इन्कार के बग़ैर
असम्भव है
वैभव और गरमाहट गणतत्र की

जिन हाथो से निकलता है
कुहरा दुर्घटनाओं का
लघु और दीर्घ-शंकाओं के
भीतर तक
उन्ही तूफानी हाथो में
डौर है प्रजातंत्र की

सोते हुए सभी चेहरे
लगते हैं निश्छल
जकड़ लेते जबड़े
हर सांस को
और जगते हुए चेहरों से
भयभीत है आत्मा प्रजातंत्र की

गुण-दुर्गुण लोगों के
हाथो से तपती है धरती
अमानवीय जीवन से
जन्मजात गुण-अवगुण के
इस भयातुर दौर में
कैसे बधाई दे गणतंत्र की
या तू कहे कि या मै सुनु,
कि या मन स्वपन बुनू.,
भीतर .मन अवसाद है दुनिया
कैसे स्वपन चुनु ....
..................मुकन्दा

एक गन्ध

जून के महीने सी भटकती हवा
रोज मेरे ह्रदय को जलाती है
जो आंच चूल्हे में होनी थी
वो ही आंच
चूल्हे की बुझती राख को कुरेदती है
उधार की अधपकी रोटी
उस आंच को ढून्दती है
एक ग्रास तोड़ती है
और घुटनों पे हाथ रखके
राख में आंच को मौड़ती है

पंजाब के पीले गेहू और
बिहार के ज़र्द होंटों के छाले
आज बिलखकर
आंच को आवाज़ देते हैं
आंच हर गले स्याह दर्द देती हुई
चीख मारकर
बंगाल की खाड़ी में गिरती है ...

कब्रिस्तान से
एक गन्ध-सी आती
और श्मशान पार बैठे
श्मशान-घरों के वारिस
आंच की इस गन्ध को
साँस की गन्ध में भिगो कर पीते है ...

चूल्हे की आंच धीरे धीरे
ह्रदय में उतरने लगती है
और चूल्हे के दूसरे वारिस
भूख के धुवे में
तक़दीर की गन्ध ढून्दते है
और आंच का वो धुँआ
मंदिर के आहाते जाकर
विलीन हो जाता है
मंदिर की छोटी दिवार
और मोटी हो जाती है
पुजारी का पेट उस गंध से
तृप्त होकर
गंध और आंच में अंतर ढून्डने लगता है .....

जब जवानी जागे .सपनों से आगे .........

आँखों में
मासूक का सपना ,
आशिक है
जो अपना ,
ये ख़ाक भी सबा गुल जवानी .....
अहद आगे,
सिहरन सी जागे ,
हुस्न शोला है
मयखाने बयानी ,,,,
,,,,,......मुकन्दा
खोलू सखी री पट घुघंट के ,
आयो सखी जबहू श्याम हमारो ,नैण कपाट खुले घुघंट के ...
मनमोहना थांरी बाट जोऊं मै, छांड़ो नाहिं मोहि नैण जू अटके ...
तुम बिन खान पान नहीं सुझो ,बहोत उचाट जू मन क्यों भटके
तुम आयो सखू आज मिला है , अपणे पीया में मन है लटके
जाके संग जू प्रीत निकासी , छैल बिराणो मोरे नैनन मटके
जिनसूं सांची प्रीत "मुकन्दा', वो नर निरमल माणिक वट के......
गुल पैरहन दिल बयाँ है तू जुफ्तजू ना कर
ये मिस्ल-ए-बू जवानी जल जाए ना कही
शरर-ओ-बर्क़ फ़लक़ पे कुछ था शताबी का
इस खाके में ख़ूँ कहानी मर जाए ना कही
क़िस्सा बयाँ हमारा क्यों कर है होठो पर
बे-हिजाबी हुश्न बयानी कर जाए ना कही
इश्के मानिंद बज़्म में हम शमा की तरह
परवाना शोख दीवानी हो जाए ना कही
ऐ "मुकन्दा' दूर रहना इस आब-ए-अश्क में

दिल-ऐ-बद सयानी आ जाए ना कही .....

नजर-ऐ-दुनिया .........

हम कैसे
दिलजलो को
आयेगी रास दुनिया
इन
फ़िक्रे-दिलजलो की
ज़ूद-ऐ-कुश्तन है
दुनिया
गम-ऐ-शबो के
रहबर
लहू से
लब्ज लिखते
शरह-ओ-बयाँ
स्याही से
इतने-सुबुक है
दिखते
आहे-फ़लक-फ़ुग़न पे
दुशवार है ये
दुनिया .....

सरताज इश्क है सितमगर .........

....भीगी जेही चोली पानी में
दामन को निचोड़ जवानी में
जू पराग बढ़ा चोली बढ़ती
दामन ना छुपा तू कहानी में
न गुल को है सबात इतना न क़बूल
जल जाए जवानी पानी में...
पत्थर पे ना शोख हसीना चल
ना बढ़ा तू हवस यु रवानी में
क्या मजाल है जो कसरत नमयाँ
क्या कसक है फलक की दीवानी में..
खिलती चहरे पर
क्या खूब हँसी ये जवानी में
ये हुश्न इश्क सरताज जहां
लाता है मजा जिंदगानी में .........
मुकन्दा

हे निष्ठुर ज्योत्सना..........

क्यों नभ फ़ैली तुम
बन विवर्तन
अपरिचित सा ये
नयनोन्मीलन नर्तन तुम्हारा
लगता है जैसे
नभ पर हो
दिगंत-छबि-जाल
जब रंग गुलाल खिले तन पे , गौरी पे रंग दमकता हो...
चोली अंगिया सब भीग गई ,फिर देख बहारे होली की...

गोरी को रंग गुलाल मले , भाभी के संग ठिठोली हो..
भर भर के जाम छलकते हो, तब देख बहारे होली की..

हाथों में जब पिचकारी हो ,और सामने जब मन प्यारी हो..
रंग खिले सभी तब बढ़ बढ़ के ,फिर देख बहारे होली की..

जब रंग लगावे अड़ अड़ के , कुछ घट घट के, कुछ बढ़ बढ़ के...
नैनो से नैन मटकते हो , तब देख बहारे होली की ......

इस धूम धडाके में तन मन ,मुह लाल गुलाबी होय बदन ...
किचड में सना "मुकन्दा" हो , तब देख बहारे होली की ...




होली का आईना जैसे
गौरी को छूने का सुख है
वज्र-गिरि वक्षस्थल
और इसकी रानों की चमक
मर्दों को खूब पसंद है
इसी बहाने .
ऊर्ध्व दिशा से
रंग गिराकर
पिंडलियाँ ताकते रहते है
सूखी भूरी अपनी आँखों से
तन से चिपके कपड़ो के नीचे
घनघोर जिस्म के झुरमुट की
झिलमिलाहट से आशावान है
उसको मालूम है
धीरे से मुस्कराती है
आँखों ही आँखों में जैसे
कहती है
अभी फल बहुत दूर है
मेरे स्वपन
मेरे स्वपन
अभी टूटे नहीं
मोतियों -से उच्छल आनंदित गीत
अभी रूठे नहीं
हालाकि अभी भी
कहीं-कहीं अन्धेरी रात है
और ठण्डे लोहे का शासन
हड्डियों को गला रहा है
पर सपने तो रात में ही
पैदा होते है
हालाकि रात का सूना कोहरा
मेरे गले में यूँ ही पल भर
बैठा रहता है
और मेरे गीतों की आवाज को
पूर्णविराम देता रहता है
परन्तु यह सब क्षणिक होता है
क्यों की सूरज न बाँधा जाता
ना रोका जाता
शीशे के दरवाज़ों और झरोखों पर
चाँद झाकता रहता है
और सूरज के नाम पर
सूरज को देखने की कामना
करता रहता है
रात की समाप्ति पर
चाँद रुग्ण चेहरे को
छुपाने की कौशिश करता है
मेरी गीत चुराकर
भागता है
पीली हवा और चाँदनी में
मेरी गीत कितने सुन्दर आते है
दोनों
मुझसे दूर भागने लगते है
चाँद के कहने पर
पर मुझे पता है
धरती की धूप
मुझे सब दे देंगी
सपनों की वापसी होगी
और गीतों की भी
अगर आप धारदार चाकू से
नरक के इन सैकड़ों-हज़ारों दूतो को
काट दोगे
फूंक दो अन्धकार के
बूतखानो को
तोड़ दो
इनके क़ैदख़ानों को
फिर देखो
जीवन की समस्त
धुप के मालिक आप ही हो
आप के होठो पर गुनगुनाएगे गीत
मन में सुमधुर सपने आयेगे
रात के अंधेरो में
और चाँद भी तुम्हारा
दोस्त बन जाएगा
खिलती धुप में ...................
...........मुकन्दा ...
ये इंतज़ार ही वक़्त से निकल दिल को घायल कर गया,
मैं तो बस उम्मीद ज़हन से लगाये भटकता रहा उम्र भर
,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,......mukanda

ये दुनीया इंसानों की नहीं पहलवानों की है

वो एक पहलवान था
मेरी तरह
उद्धंड और दबंग
असीलियत और अनुभव कों
उसी तरह देखता था
जैसे अखाडे में
अपने प्रतिद्वंधी पहलवान कों
एक दिन मैंने उसे समझाया
पहलवान ये दुनिया
इंसानों के लिए है
वाह नेरी बात सुनकर सोचता रहा
घूरता रहा
टूटे हुए पुल की भांति
एक दुसरे के छोरो कों देखता रहा
आँखों से इस छोर से उस छोर तक
उसी लोक-चेतना को
बार-बार टेरता रहा
और मेरी और मुह करके चिल्लाया
"नहीं, नहीं मुकन्दा
ये दुनीया इंसानों की नहीं पहलवानों की है
तू मुर्ख है जो अपने आप कों पहलवान समझता है
मैं बताता हूँ असली पहलवान कौन है
आज भी ये दुनीया पहलवानों की है
नेता पहलवान है
उद्योगपति पहलवान है
व्यापारी पहलवान है
वकील पहलवान है
अधिकारी पहलवान है
मंत्री पहलवान है
बड़े बड़े अभिनेता और कवि लेखक भी पहलवान है
ठेकेदार पहलवान है
अमेरिका पहलवान है
ये दुनिया असल में पहलवानों की ही है
चाहे वो किसी भी अखाडे का हों
गाव के समाज से लेकर
सत्ता के शीर्ष तक का अखाडा
उसकी भाषा में
ना संज्ञा था ना सर्वनाम
और ना ही व्याकरण का भाव
उसके शब्द पत्थर की भांति धीरे धीरे
बाहर आ रहे थे
हर शब्द कों बाहर निकालते हुए
वह कह रहा था
सुन रे मुर्ख मुकन्दा
मैंने यहाँ ईमान दारो कों
बे-इमानो के तलुवे चाटते देखा है
बे-इमानो कों इंसानों की खाल उतारते देखा है
सरे आम निर्दोषों कों कोड लगते देखा है
मजलूम और औरतो का शोषण होते देखा है
माँ बहनों की इज्जत लुटते देखा है
कमरों कों भूखे मरते देखा है
कामचोरों कों माल पुवे खाते देखा है
किसानो कों आत्महत्या करते देखा है
व्यापारियों के कुत्तो कों पांच सितारा होटल में
होटल मेनेजरो द्वारा स्वादिष्ट मांस किखाते देखा है
धानाडेह सेठो की पतिव्रता पत्नियों कों
कल्ब में मौज उडाते देखा है
सत्य कों बे-इमानी के पैर दबाते देखा है
इंसानों कों करहाते देखा है
जुल्म की सौ इबारते पढ़ने वालो कों
इंसानियत पर कवीता लिखते देखा है
वकीलों कों गुंडों और अपराधियों के बीच
निलाम होते देखा है
अधिकारियो कों बे-इमानो के साथ
नाचते हुए देखा है
राम लाल सेठ की मरी हुई कुतिया के शव पर
नगर मेयर कों कंधा देते हुए देखा है
मगर शम्भू महतो जैसे गरीब के शव कों
धुप में सड़ते हुवे देखा है
और एक ईमान दार कों अपनी इमानदार पर
मलाल करते देखा है
एक इंसान कों इंसानियत पर रोते देखा है
लुलो लंगडो कों राष्टीय खेलो में खेलते देखा है
खिलाडियों कों आंसू बहाते देखा है
और तुम कहते हों दुनीया इंसानों की है
सुनो मुर्ख मुकन्दा जो मजे उडा रहे है
वो सब अपने अपने क्षेत्रो के पहलवान है
और जो रहे है वो सब इंसान है
धन ,ताकत और सत्ता के नशे में चूर
ये सब पहलवान है
जिनके पास साधन है
धन है
सत्ता है
बाहुबल है
मगर इंसानों के पास क्या है
इमानदारी
जो किसी भी काम की नहीं
आज इमानदार इंसानों के भीतर
शब्दभेदी सन्नाटा है
तुम अपने आप कों पहलवान कहते हों
तुम पहलवान होकर भी इंसान हों
और वे बे ईमान होकर भी पहलवान है
मैं फटे मुह से उसकी बाते सुनता रहा
और मैंने मससूस किया
जैसे मेरे अन्दर का पहलवान
धीरे धीरे मेरा साथ छोड रहा है
और मेरी रगों में एक इंसान
आहिस्ता आहिस्ता दौड़ रहा है ...
............. मुकन्दा


नभ ज्योत्सना

शाश्वत-शृंगार बने
सहस्र बार असुहार बने
ज्योति-चुम्बित सजे
सौरभ-हार
हृदय के हास और
गुंजित रजत-प्रसार
हे नभ ज्योत्सना
तुहिन-अश्रु बन निशा का
दे धरा को प्रदीप प्रवाल
बन शाश्वत-शृंगार ..........
...आक्रोशित मन...

इंसानी कैक्टस

मेरा जन्म महज
एक घटना थी
किसी के आनद
और अपनेपन की चाह की

मेरा बचपन
पौधघर था
जहां मुझे रोंपा गया
इंसानों की शानदार खेती के लिए

जवानी सीखने की
कार्यशाला थी
जहां मैंने बहुत से
हुनर सीखे
दुसरो को गिराने के लिए

शादी एक ऐसा तौफा थी
जो विज्ञापन की भांती
बाहर से ललचाता था
अन्दर से कोरा खाली था

और मेरा बुढापा
बरगद के पेड़ की तरह
अपने नीचे किसी
दुसरे पेड़ को
पनपने नहीं देता
मेरे शब्द



ये मेरे शब्द है
मेरे लहू की तरह मेरे शब्द भी
लाल रंग के है
जिसका रंग कभी नहीं बदलता
रात हो दिन सुबह हो या शाम
यह रंग एक-सा रहता है
वक़्त आने पर इस लहू में
आग जल उठती है
और मुकन्दा के इस सुर्ख लहू में
लाल रंग के फूल खिल उठते हैं
............................मुकन्दा

धर्म के प्रशिक्षित दलाल...

वे हमेशा कही ना कही
किसी के विश्वास की ह्त्या
करते ही रहते है
इनके पूजा घरो में
इंसानी खून के नीचे
मरे हुए देवता बहते है
जहां ये बैठकर
इंसानों के विश्वासों की ह्त्या करते है
उनकी आँखे खोजती रहती है
गाव की गलियाँ
शहर की चौड़ी सड़के
और कुछ उदास परेशान
सीधे साधे लोग ,
वे जानते है कैसे हदे तोड़ी जाती है ,
कब कहाँ और किस तरह ,
मै जानता हूँ
उनकी बाते महज एक ढोंग है
लेकिन यहाँ बेशुमार लोग
उनकी बातो को
रुपहली आकाशगंगा समझते है ,
उनमे हर तरह के लोग है ,
वे वकील हैं वैज्ञानिक हैं
अध्यापक हैं नेता हैं
लेखक है कवि है कलाकार है
किसान है मजदूर है
छात्र है नौकरीपेशा है
अमीर है गरीब है ,
ये सब संशय की अनिश्चयग्रस्त में जीते है
तभी तो उन आदमखोर की हवस
बढ़ती ही जाती है ,
उनकी सख्त पकड़ के नीचे
संशय से भरा हुआ आदमी
सदियों से ही
उनकी कार्यशाला के विज्ञान की
प्रयोगशाला है ,
जहा ये उनके विश्वाश की
चीर फाड़ करते रहते है
मुंबई हो या रोहतक
दोनों ही उनके दिल के
ठीक उतने ही पास हैं
जितने शारीर के अंग ,
क्यों की वे जानते है दोनों ही जगह
इंसानों के बीच मुर्दों का वास है ,
उनका व्याकरण इस देश की
नस नस में बिखरा है
शब्दों के बीच घिरा हुआ आदमी
इनकी पकड़ के बहुत करीब है
क्योके जीने की तमीज और
ढोंग को मिटाने में हम बहुत गरीब है ,
गिरगिट की तरह रंग बदलते हुये
इस ज़माने में ये लोग ज़िंदा भूत है
हमारे साबुत और सीधे विचारों पर जमी हुई काई
और उगी घास
हमारी बेबसी और उथले पण का सबूत है ...........

रोते हुए शब्द

मैंने देखा
लोग लिखने में मग्न है
क्यों लिख रहे
और क्या लिख रहे है
खुद उनको नहीं पता
वे तो साहित्य लिखते है
भाषा के लिए लिखते
और भाषा जैसे दिखते है
जहां भारी भरकम शब्द
भाषा की रीड की हड्डी पर
इसी तरह चढ़े बैठे है
जैसे मजदूर की पीठ पर बौरा
कोई प्यार में लिखता है
कोई प्यार के लिए लिखता है
कोई लिखता है प्यार कविता में ही है
इंसानों से नहीं
कोई लिखता है की लिखना
बुद्धीजीवीयों का काम है
इन्ही का महत्त्व है ,
ये ही मत है
बाकी कमबख्त है
इनमे से जो चंद है
समृद्ध है
सामंतो की पकड़ से परे है
दंगा हो , दबंग की दबंगी हो
या समसामंतो का न्याय
हर दीवार में सेंध सुराख
खोजता ही रहता है
मगर मुकन्दा के गीत
ना उसके है
ना उसके प्यार के
ना उसके किसी यार के
ये गीत है मेहनतकश इंसानों के
मजदूरों के किसानो के
रोती हुई आँखों के
गूंगे और बुजुबानो के
आपके शब्दों में
रस है अलंकार है छंद है
मेरे शब्दों में किसी की
आँख का अटका आंसू और
गरीबी का गंद है
उन्हें उनकी कविता मुबारक
मुकन्दा का कविता से क्या वास्ता
मुकन्दा की तो मंजिल ही अलग है
और अलग है उसका रास्ता .....