Sunday, March 28, 2010

मेरी कलम


जब मै कभी उदास होता हूँ
मेरी कलम मुझे कहती है
है निर्लज्ज मुकन्दा
निस्पन्द निर्जनता के इस गहन अन्धकार में
अपने सुनहरे दिन को क्यों खराब कर रहा है
इस उदास चहरे को
धरती की तरफ क्यों ले जा रहा है
अनंत आकास की तरफ देख
जिसका कही कोई अंत नहीं
घोर निराशा तेरा स्वभाव नहीं
उठ,और खुद काँपने से पहले
अपने शब्दों से इस असह्य आक्षेप को
कप कँपा के रख दे ...
सफ़ेद होते तुम्हारे चहरे पर
दुःख की छाया व्याप्त है
नंगी धरती पर पर अपने आप को नंगा मत कर
अंधेरी हवा की अवगुंठित छाया पर
जीवन-नदी में सरकने के लिए
तैरना बहुत जरुरी है
बादलों के आकाश में
तुम्हारी सुनहली धूप
पवित्र और करुण आँखों से
तुम्हारी तरफ देख रही है
उजले और निर्मम में
तुम्हारा स्वागत करने को आतुर है
अन्धकार का निस्सीम व्यवधान
तुम्हारे लिए नहीं
तुम थामे रहो मुझको और डरना मत
तुम सिर्फ़ देखना
रो-रोकर थक जायेगी अपने आप
तुम्हारी ये अवसन्न व्याकुल जीर्ण उदासी
और सोचो कि तुम मेरे लिए हो
मत देखो घेरता हुआ अन्धकार... बिखरते केश
तुम सावन की बारिश की तरह देखो
मधुरतम क्षणों में भी जो
गाज बनकर गिरती है
मुसलाधार बारिश की तरह
और बहाकर ले जाती है
धरती का सारा कूडा करकट
तुम्हारी उद्धत उत्सुक विदीर्ण छाती के बीचों-बीच
स्वप्न की तरह
मै हमेशा तुम्हारे साथ हूँ
भीगी हुई अस्त-व्यस्त
इस भग्न पृथ्वी का कूड़ा-करकट बुहारती हुई
सुन्दर शीतल ममतामयी सुबह की तरह ..........................
...... मुकन्दा

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