Sunday, March 28, 2010

मुंबई कहा है...................

गाव के खेतो में काम करता
रोशनी के तरसता एक खुशहाल किसान
रोशनी ख़त्म करने के लिए
समंदर के किनारे
मुंबई के होटल में बैठा
लटके विश्वास में भटकता एक इंसान
जीवन के स्पन्दन और मृत्यु के कम्पन में
देखो कितना अंतर है
दोनों की शुभ्र मुस्कानों में
आत्मीय स्नेह में
दोनों ही निरउत्तर है
मगर मुंबई कि और आने वाली गाव की सड़क
अभी भी कितनी सुरक्षित है
कोई ठहराव नहीं आज भी इस पर
सड़क पर अब भी गोल गोल पहियों में
चलती गाडियों में घोर यंत्रणा है
यह मुंबई है
न मरे में है और न जिये में
जहां इंसान उगते है सड़क के किनारों से
लेकिन अख़बारों के हर हिस्से पर मुंबई की छाया है
इसकी जड़ें कभी नहीं सूखतीं
वे फैलती हैं भारत की नितल गहराइयों में
चट्टानों के पार तक धरती के भीतर
अपना रास्ता ढूंढती हुईं
मुंबई अपना अखबार रोज़ छपती है
नगर इसके भीतर रहने वाले इंसान
कभी नहीं पढ़ते इसे
प्रसन्न किसान प्रतीक्षा कर रहा है
मुंबई कि और जाने वाले वाहन की
आकाश की और ताकता होटल में बैठा इंसान
प्रतीक्षा कर रहा है वायुयान की
बर्बर समुद्र-तट से उठाती हवा बार बार कहती है
मुंबई कहा है
समंदर की दीवारों से कैद
जीता और मरता शहर
जहां फुटपाथ पर
बन्दूक से छूटी एक गोली है या रोटी का एक टुकड़ा
समंदर से सुरक्षित करने के लिए बनी दीवार
काम आती है विज्ञापनों के लिए भी
उस पर चिपके पोस्टरों पर
बरसती है बारिश
इकट्ठा हो जाता है समंदर का बहुरंगी जल
अभी भी शेष है वहाँ, उस दीवार की ओट में
सर छुपाने के लिए
गाव से आया वो किसान
प्रसन्न किसान
और होटल का इंसान
दोनों ही मुंबई की धड़कन है

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