Sunday, March 28, 2010

सफ़ेद कालर वाली कमीज.....


हे जलेबी की भाँती
सीधे साधे उपदेशक
मैं पूछता हूँ एक बस शब्द तुम से ,
ये शब्द नहीं
बल्कि एक प्रश्न है ये
क्या तुम्हारी आँख का पानी अभी जिंदा है
मुझे याद नहीं ऎसा तुमने बताया था कि नहीं,
और यह देता है सिहरन भी, अगर यह असली चीज़ है,
ये कुदरत का नियम है की जब
यह पानी हमारी आँख से
मर जाता है
तभी हम दूसरो की आँख का पानी
ढून्दते है ,
और हम बुदबुदाते रहते है
"आज इंसान मर गया ,इंसानियत मर गई
लाज हया अब बाकी नहीं कोई "
जब ये चीजे मुससे जुदा हों जाती है
तब मैं दूसरो में ढून्डने लगता हूँ
ये बाते
क्यू की मुझे मालूम है
इन्हें मारने में मेरा सबसे बड़ा हाथ रहा है .
क्या तुम भी मेरी तरह ही हों ?
मुझे नहीं मालूम।
पर ये मालूम है ,
तुम्हे जब भी मौका मिलता है ,
तुम कभी भी मेरी तरह चुकते नहीं हों
लेकिन बिलकुल भिन्न तरीके से
जब यह शर्मसार ना हो,
क्यू की आप जानते है सफ़ेद कालर के पीछे
दुनिया के बड़े से बड़े अपराध छिप जाते है
इसलिए आप रंग चाहे कोई भी हों
पर कमीज उजले कालर वाली ही पहनते हों
इसिलए मैंने कालर तो क्या,
कमीज ही पहनना छोड़ रखा है
फिर तब?
फिर तब?
मैं कैसे फैसला कर सकता हूँ?
कैसे तुम दूसरे फैसला करते हो, मुझे बताओ,
जब तुम इस को खुल्लम-खुल्ला बोलते हो, खुले दिल से?
मुझे मालूम है तुम भी सफ़ेद कालर वाले हों
इसलिए मुझे ये तुम्हारी ये ढोंग सी भरी बाते
अच्छी नहीं लगती है
क्यू कि मुकन्दा कवि के साथ साथ
जमीं और मिट्टी से जुडा एक पहलवान भी है
और उस जमी हुई मिटटी की सुगंध
मेरे मन और शब्दों पर
अमित पर्त सी होकर जम गई है
मेरी शर्म बिक जाती है
जब मेरा चालाक मस्तिष्क
किसी की इमानदारी कों
अपनी बे-इमानी से तौलता है
क्यू की 'मुकन्दा' जब भी बोलता है
तो समझो की खून खोलता है.................
मुकन्दा

1 comment:

  1. क्यू की आप जानते है सफ़ेद कालर के पीछे
    दुनिया के बड़े से बड़े अपराध छिप जाते है
    इसलिए आप रंग चाहे कोई भी हों
    पर कमीज उजले कालर वाली ही पहनते हों
    इसिलए मैंने कालर तो क्या,
    कमीज ही पहनना छोड़ रखा है

    bahut khub

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