Friday, April 2, 2010

पागल पहलवान और दुष्ट कौए


इस पागल पहलवान को

क्यों बुलाते हो अखाडे में

अखाडे की मिट्टी और दाव पेंच ,

कब का छोड़ चुका हूँ मै

अब मेरी मुठ्ठी में है मेरे शब्द

मुझे और क्या अच्छा लग रहा है

भैस के साथ जोहड़ में नहाना

लंगोट और ताबीज पहनना

मुझे तुम्हारे अखाडे में ज़रा भी मजा नहीं आता

हड्डी तोड़ने में कुछ नहीं रखा

जो जब ढूंढे, मैं उसका बन जाऊं,यही तो आस है.

अब बात ध्यान से सुनो ,

एक दिन गिद्धों के पीछे-पीछे कौए चले गए,

और अब सुबह दिखाई नहीं देते छत पर

कुछ दिन पहले,

एक कोवा मदन लाल हलवाई की दुकान के सामने,

मरी हुई चुहिया खा रहा था,

मैंने कहा रे दुष्ट शर्म कर

कहाँ है तेरा गाँव, तेरी जमीन, रिश्ते-नाते

क्यों छोड़ दिए तुने सबको

राग्गड़ का बेटा सतिया

उस दिन खूब रोया था

जिस दिन उसके गंजे सर पर तुने काटा था

दुष्ट तू उसे देखकर खूब हंसा था .

वो दुष्ट मेरी तरफ देखकर बेशर्मी से बोला

कि चिलचिलाती धुप में मैंने कितनी नौटंकी की.

और घडे का पानी पी ही गया ,

तू चुहिया की बात करता है

मै तेरी सारी भैसे चबा जाउंगा

जा मुर्ख मुकन्दा तू अपना रास्ता नाप

और अधखाई चुहिया छोड़ वह उड़ गया

जा बैठा बिजली के खंभे पर,

एक पैर पर बैठे-बैठे ताकता रहा.

और बोला

इतना गुरुर मत कर,

तेरा क्या लेना-देना शब्दों से कविता से ?

जा के पहलवानी कर ,

तेरा उज्जड दिमांग कविता के काबिल नहीं

भैसों और जानवरों के साथ रहकर तू भी

तू भी जानवर ही है अभी तक

फिर अँधेरा गहराता गया,

और अब एक-दूसरे को देखना भी संभव न था...................
मुकन्दा

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