Friday, April 9, 2010

प्रहरीवृन्द इंसान.....


इंसानी समाज
पर्दों के भीतर रहता है
उसकी रुपहली रोशनी
पर्दों के बहार है
धुएँ और कालिख को
छिपाए रखता है पर्दों में
कभी कभी इंसान पर्दों के भीतर
मारकर भी जी उठता है
पूजा के घण्टे और मंदिर के अहाते में
गहरी साँस छोड़कर
बार बार छाती में ,
सामने बैठे
भगवन की और देखकर ,
जिन्दगी के सुख
ढूंड़ता है
संसार का ये प्रहरीवृन्द इंसान
बड़ा मजाकिया है
मंदिर बनाकर मूरत में
सूरत देखता है
और मस्जिद बनाकर
सूरत और मूरत
दोनों को मिटा देता है
दोनों जगह इंसान ही है

3 comments:

  1. दोनों जगह इंसान ही है....ji ha ye insan hi hai jo khud ko khuda se bada samajhata hai..bahut achchha likhte ho dost..very fine....

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  2. दर्पण के मन के ..कांच का हूँ
    मैं एक अक्स

    उस चेहेरे सा ही मेरा चेहेरा हैं
    क्या सच ...?

    कांच के भीतर परछाईयों से मुलाक़ात होती हैं
    अकसर

    और
    रिश्तों में गहराई का मुझे होता हैं
    भरम

    तोड़कर शीशे की दीवार बाहर नही पाता
    उतर

    खुद कों पहचानने के लिये
    जब भी खड़े होता हूँ
    सबके समक्ष
    निगाहों के शीशे मुंह फेर लेते हैं
    उधर

    हरेक के पास अपनी हैं
    एक चमक
    मुझे कौन पहचानेगा
    मैं तो हूँ
    अंधेरो से बना एक
    तमस
    लेकिन उन्हें पता नहीं
    काली पृष्ट -भूमी पर ही
    उभर कर आते हैं
    श्वेत ..दुधिया ..धवल रंग

    लेकिन मेरे लापता इस व्यक्तित्व कों
    कैसे समझाऊ कि
    सत्य कों जीने के लिये
    नही चाहिए
    दर्पण में समाये
    प्रतिरूपों कों अपनाए
    प्रतिबिम्बों का -
    झूठा समर्थन

    किशोर

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