Friday, April 2, 2010

घुन लगी बस्ती .....

रोज सूरज आता है
और अस्त हो जाता है
वक्त का हिसाब हमेशा चलता रहता है
पल पल के बाद पल आता रहता है
धुप का पीला रंग
घबडाकर नीचे की ओर बहता है
जुल्म का नर्म सूर्योदय और
शोषण का मखमली सूर्यास्त
बादलों का घर ध्वस्त करते रहते है
बैशाखी पे सवार
लंगडा विश्व
विदीर्ण मन से ओर विस्तरित होता रहता है
चारो ओर काली धुवे की लकीर
बोलने की कोशिश करती है
लेकिन क्रूरता का जोई इलाज नहीं
दरवाजे पर खड़ा होकर मै
डरे हुए पंछियों को लम्बी आवाज देता हूँ
पंछियों की चीखो के शब्द
धुप के नीचे जलती आवाज में जल जाते है
निस्सीम निःसंग हवा में
एक तारा बेहोश हो जाता है
शाश्वत चैतन्य का पहरेदार
मुझे जगाकर
विदीर्ण छाती के बीचों-बीच
प्रचण्ड वेग से प्रहार करता है
मंदिरों के पुजारी
प्रार्थना में लीन हो जाते है
और अग्नि को आकाश की ओर
उठाकर कहते है
आकांक्षा का मेघ अब बरसने वाला है
अपने धंधे और मुनाफ़े के लिए
धरती की ओर पीठ करके
निस्सीम निःसंग हवा में
दुनिया को डराते है
लहू सी लाल आँखों से
थक चुकी मिट्टी की ओर
अन्धकार का परचम फहराते है
खून को खून में बाँटते है
मनुष्यों को धर्म ओर जाति में छांटते है
छोटी छोटी दीवारों को
बड़ी करके आंकते है
भगवान नाम का बम
हर शहर हर गली
हर तालाब हर नदी में बहाते है
अजस्र उंगलियों से असन्तोष की आग में
तकदीर की आग जलाते है
पानी की छाया में
पेड़ उगाते है
लेकिन आप फिर भी कहते हो
कोई प्रशन नहीं करते हो
अविरल विश्वास में भुगती जाय सज़ा पे
विश्वाश करते हो
धरती न्याय मांगती है
और देखना चाहती है कि
रास्तों पर बने हुए तोरण
शान्ति का प्रतिबिम्ब है या नहीं
बचे हुवे तंग रास्ते
तराजू के काँटे पर बीचों-बीच
जाकर खड़े हो जाते है
पंगत पाप-पुण्य की तलवार से
ज़ुबान बन्द हो जाती है
ओर मै सौप देता हूँ अपनी गर्दन
ईश्वरीय धुंध पर
उनकी कुल्हाड़ी के नीचे ....
...................
आक्रोशित मन

1 comment:

  1. bahut achchi rachna hai.khoobsurat shabdon ka prayog kya khoob ban pada hai.

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