Friday, April 2, 2010

मुकन्दा रचता है वो गीत ..


मैं रचता हूँ वो गीत
जो गाये जाते है चट्टानों पर
खेतो और खलियानों में
किन्तु क्या मैं वास्तव में गाता हूँ
नहीं,
मैं हकीकत को ब्यान करता हूँ
ब्यान करता हूँ अतीत की यातनाओं को
वर्त्तमान के संघर्षो को
और उजले स्याह जैसे दिखते
जीवन के हर पन्ने को
प्रत्येक पृष्ठ पर सीधी-सादी हैं मेरी कविताएँ
हेर फेर का खेल मैंने कभी सीखा ही नहीं
बेजुबानी शब्दों में मगन और
जो आनन्दों में खेल रहे है
ऎसे चिकने-चुपड़े श्रोताओं के सम्मुख
जुबां की मीठी स्वर लहरी खामोश रहती है,
नहीं उठाता अपनी कर्कश आवाज़ें
झिलमिल करते किसी मंच पर
ना ही दिल जिगर फेफेडो को
साथ लेकर चलने वाले गीतकारों के साथ
मैं अपनी दहाड़ वहा मारता हूँ
जहाँ आक्रोश के रोष ने अपना घेरा डाला है
अधजले भूतकाल ने अपने स्वर का
बे-हिसाब अनुचित उपयोग किया है
मैं कोई निवाला नहीं
जो मुह के अन्दर चला जाउंगा
एक आग का शोला हूँ
शब्दों और भावो का,
मेरी तीखी पैनी कविता
मेरी अपनी है ,जो रची गई है
मेहनत से ,
मेहनतकश लोगो के लिए ,
हे कमेरो ,
बस तुम मेरे हो
मेरी नाराज़ी का कारण
केवल तुम्हीं समझते हो
मैं उसे ही सत्य मानता हूँ
वह निर्णय जो तुम देते हो
मेरी कविता कभी आवाज
नहीं करती आप लोगो के सामने
तुम्हारे मन के भावों की आशाओं को
मैं निष्ठा से सुनता रहता हूँ
तुम्हारे दिल की हर धड़कन
मेरी अपनी है
मेरे शब्द तुम्हारी ही जुबान है
..................
मुर्ख मुकन्दा

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